कुलदेव महेश्वर महादेव

 कुलदेव महेश्वर महादेव


        छत्तीसगढ़ के अधिकांश शिव मंदिर सृजन और कल्याण के प्रतीक स्वरूप निर्मित हुए हैं। लिंग रहस्य और लिंगोपासना के बारे में स्कंद पुराण में वर्णन मिलता है, उसके अनुसार भगवान महेश्वर अलिंग हैं, प्रकृति प्रधान लिंग है -        

 आकाशं लिंगमित्याहु पृथिवी तस्य पीठिका।
 आलयः सर्व देवानां लयनाल्लिंग मुच्यते।।

        अर्थात् आकाश लिंग और पृथ्वी उसकी पीठिका है। सब देवताओं का आलय में लय होता है, इसीलिये इसे लिंग कहते हैं। हिन्दू धर्म में शिव का स्वरूप अत्यंत उदात्त रहा है। पल में रूष्ट और पल में प्रसन्न होने वाले और मनोवांछित वर देने वाले औघड़दानी महादेव ही हैं

शिवरीनारायण के महेश्वर महादेव
        छत्तीसगढ़ में राजा-महाराजा, जमींदार और मालगुजारों द्वारा निर्मित अनेक गढ़, हवेली, किला और मंदिर आज भी उस काल के मूक साक्षी है। कइयों के वंश खत्म हो गये और कुछ राजनीति, व्यापार आदि में संलग्न होकर अपनी वंश परम्परा को बनाये हुए हैं। वंश परम्परा को जीवित रखने के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता ? राजा हो या रंक, सभी वंश वृद्धि के लिए मनौती मानने, तीर्थयात्रा और पूजा-यज्ञादि करने का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में मिलता हैं। देव संयोग से उनकी मनौतियां पूरी होती रही और देवी-देवताओं के मंदिर इन्ही मनौतियों की पूर्णता पर बनाये जाते रहे हैं, जो कालान्तर में उनके ‘‘कुलदेव’’ के रूप में पूजित होते हैं। छत्तीसगढ़ में औघड़दानी महादेव को वंशधर के रूप में पूजा जाता है। खरौद के लक्ष्मणेश्वर महादेव को वंशधर के रूप में पूजा जाता है। यहां लखेसर चढ़ाया जाता है। हसदो नदी के तट पर प्रतिष्ठित कलेश्वरनाथ महादेव वंशवृद्धि के लिए सुविख्यात् है। खरियार के राजा वीर विक्रम सिंहदेव ने कालेश्वर महादेव की पूजा अर्चना कर वंश वृद्धि का लाभ प्राप्त किया था। खरियार के युवराज डॉ. जे. पी. सिंहदेव ने मुझे सूचित किया है-‘‘मेरे दादा स्व. राजा वीर विक्रम सिंहदेव वास्तव में वंश वृद्धि के लिए पीथमपुर जाकर कालेश्वर महादेव की पूजा और मनौती किये थे। उनके आशीर्वाद से दो पुत्र क्रमशः आरतातनदेव, विजयभैरवदेव और दो पुत्री कनक मंजरी देवी और शोभज्ञा मंजरी देवी हुई और हमारा वंश बढ़ गया।’’ इसी प्रकार माखन साव के वंश को महेश्वर महादेव ने बढ़ाया। आज हमारा वट वृक्ष जैसा फैला माखन वंश महेश्वर महादेव के आशीर्वाद से ही हो सका है। इन्ही के पुण्य प्रताप से बिलाईगढ़-कटगी के जमींदार की वंशबेल बढ़ी और जमींदार श्री प्रानसिंह बहादुर ने नवापारा गांव माघ सुदि 01 संवत् 1894 में महेश्वर महादेव के भोग-रागादि के लिए चढ़ाकर पुण्य कार्य किया। उनकी महिमा अपरम्पार है, तभी तो कवि स्व. श्री तुलाराम गोपाल उनकी महिमा गाते हैं -

सदा आज की तिथि में आकर यहां जो मुझे गाये
लाख बेल के पत्र, लाख चांवल जो मुझे चढ़ाये
एवमस्तु ! तेरे कृतित्व के क्रम को रखने जारी
दूर करूंगा उनके दुख, भय, क्लेश, शोक संसारी।

शिवरीनारायण के महेश्वर महादेव मंदिर
        शिवरीनारायण के इस महेश्वरनाथ मंदिर के प्रथम पुजारी के रूप में श्री माखन साव ने पंडित रमानाथ को नियुक्त किया था। पंडित रमानाथ ठाकुर जगमोहनसिंह द्वारा सन् 1884 में लिखकर प्रकाशित पुस्तक ‘‘सज्जनाष्टक’’ के एक सज्जन व्यक्ति थे। उनके मृत्योपरांत उनके पुत्र श्री शिवगुलाम इस मंदिर के पुजारी हुए। फिर यह परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी इस मंदिर के पुजारी हुए। इस परिवार के अंतिम पुजारी पंडित देवी महाराज थे जिन्होंने जीवित रहते इस मंदिर में पूजा-अर्चना की बाद में उनके पुत्रों ने इस मंदिर का पुजारी बनना अस्वीकार कर दिया और पंडिताई के बजाय नौकरी करने लगे, तब से इस मंदिर में पूजा की वंशानुक्रम परम्परा टूटी। सम्प्रति इस मंदिर में पंडित कार्तिक महाराज के पुत्र पं. सुशील दुबे पुजारी के रूप में कार्यरत हैं। 

हसुवा के महेश्वर महादेव
        छत्तीसगढ़ के प्रमुख मालगुजारों में शिवरीनारायण के स्व. माखन साव का नाम आज भी बड़ी श्रद्धा और आदर के साथ लिया जाता है। कृषि कार्य उनका प्रमुख कर्म था। व्यापार करके उन्होंने वैभव और सम्पन्नता प्राप्त की थी। अनेक राजा-महाराजा, जमींदार और मालगुजारों से उनके मधुर और पारिवारिक सम्बंध थे। वे धार्मिक प्रवृत्ति के थे। अपनी वार्षिक आमदनी का कुछ भाग वे दान-पुण्य और सार्वजनिक हितों में खर्च किया करते थे। उन्होंने अपनी सभी मालगुजारी गांव में तालाब और कुंआ खुदवाया जो आज भी है। तालाब इतने बड़े-बड़े हैं, जिनसे खेतों की सिंचाई की जा सकती है। मुझे मेरे घर में श्री खेदूराम साव के नाम डिप्टी कमिश्नर बिलासपुर द्वारा प्रदत्त एक प्रमाण पत्र मिला है जिसमें सन् 1899-1900 में अपने मालगुजारी गांव लखुर्री, हसुवा और टाटा के गरीब जनता के उत्थान के लिए 2595 रूपये में तालाब खुदवाकर सद्कार्य करने के कारण प्रशस्ति पत्र प्रदान किये जाने का उल्लेख है। ब्रिटिश सरकार द्वारा सन् 1856-57 में पूरे छत्तीसगढ़ में भीषण आकाल पड़ा था, चारों ओर त्राहि त्राहि होने लगी थी तब यहां के राजा-महाराजा, जमींदार और मालगुजारों से अपनेे क्षेत्र की जनता के लिए राहत कार्य चलाने का अनुरोध करने पर माखन साव ने उपरोक्त मालगुजारी गांवों लखुर्री, टाटा और हसुआ में तालाब खुदवाने का कार्य किया था। यह वास्तव में जनता के लिए राहत कार्य था जिसमें मजदूरों को राशन दिया जाता था। आगे चलकर ऐसे कार्य करने वाले राजा-महाराजा, जमींदार और मालगुजारों को प्रशस्ति पत्र देने की योजना बनी तब माखन साव की मृत्यु हो गई थी और माखन वंश के लंबरदार और मालगुजार उनके ज्येष्ठ पुत्र खेदूराम साव को मिला था। इसी लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रशस्ति पत्र खेदूराम साव को प्रदान किया गया जो इस परिवार के लिए गौरव की बात है। आगे चलकर इस वंश के मालगुजार और लंबरदार श्री आत्माराम साव ने अपने 28 मालगुजारी गांव में तालाब खुदवाया था जो आज भी है।

महेश्वर महादेव लखुर्री 
        मखन वंश के द्वारा अनेक तीर्थस्थानों जैसे, बद्रीनाथ, केदारनाथ, जगन्नाथपुरी, मथुरा, वृंदावन, इलाहाबाद, बनारस, कटनी, सारंगढ़, शिवरीनारायण, हसुवा, तालदेवरी और सोंठी आदि में धर्मशाला निर्माण कराया गया था। न केवल परिवारजन बल्कि तीर्थ यात्रियों के तीर्थयात्रा के दौरान रूकने के लिए इन धर्मशालाओं का निर्माण कराया गया था। उनमें सद्कार्य करके प्रसिद्धि पाने की भूख नहीं थी इसलिए कहीं अपना या अपने परिवार का निर्माणकर्त्ता के रूप में उल्लेख नहीं किये। बड़े परिवा में कोई न कोई तीर्थयात्रा में जाता ही था जो यहां रूकते थे। पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसा करने से परिवारजनों का धर्मशाला की जानकारी थी। फिर हर साल वहां के पंडा यहां आते थे तब उन्हें दान दक्षिणा के साथ धर्मशाला के मरम्मत के लिए पैसा दिया जाता था जिससे उसका देखरेख होता था। तीर्थयात्रा के दौरान पंडों ने मुझे इसकी जानकारी दी है। लेकिन वर्तमान समय में पंडों को धर्मशाला के मरम्मत के लिए पैसा नहीं मिलने से उस धर्मशाला को ‘‘छत्तीसगढ़ धर्मशाला’’ नाम दिया गया है। आज भी छत्तीसगढ़ के अन्यान्य लोग तीर्थयात्रा के दौरान वहां रूकते हैं और भवन के मरम्मत के लिए पैसा भी देते हैं। इलाहाबाद(अब प्रयागराज), जगन्नाथपुरी और बद्रीनाथ में देखने को मिला। लोगों को जानकर आश्चर्य होगा कि शिवरीनारायण का सभी कुंआ उनके परिवारजनों ने बनवाया था। माखनसाव के वंशज श्री साधराम साव, लखुर्री ने कुंआ सहित भूमि दान देकर सोंठी के कुष्ठ आश्रम को शुरूवात करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। भले ही वहां कहीं भी इसका उल्लेख नहीं मिलता। मैंने अपने लेख में इसका उल्लेख किया था जिससे छत्तीसगढ़ शासन के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के द्वारा साधराम साव के पुत्र प्रो. शंकरलाल केशरवानी को उनके पिता जी के द्वारा किये गये कार्य के लिए शाल और श्रीफल देकर सम्मान किया गया था। शिवरीनारायण में सुप्रसिद्ध साव घाट, उसमें अस्थि कुंड और महेश्वर महादेव का भव्य मंदिर, धर्मशाला और शीतलामाता का मंदिर तथा घाट में बरम बाबा की मूर्ति आदि स्थापित कराया था । इस घाट को बनवाने के लिए माखन साव के पौत्र और मालगुजार स्व. श्री आत्माराम साव के द्वारा अंग्रेज सरकार से अनुमति ली गई थी। आज भी इसे ‘‘साव घाट’’ के रूप में जाना जाता है और सभी धार्मिक और मृतक कर्म के पिंड दान और अस्थि विसर्जन इस घाट में किये जाते हैं। श्री आत्माराम साव ने अपने दादा माखन साव की स्मृति में शिवरीनारायण में मिडिल स्कूल भवन बनवाकर 06.05.1935 को महाराजा की सिल्वर जुबली उत्सव के अवसर पर डिस्ट्रक्ट कौंसिल को समर्पित किया था, इसी भवन में आज हायर सेकंडरी स्कूल लगता है। हम लोगों की शिक्षा दीक्षा इसी स्कूल से हुई है। लखुर्री और हसुवा में स्कूल खुलवाया ही नहीं बल्कि उसके लिए भवन निर्माण भी कराया। लखुर्री के परघिया साव ने शिवरीनारायण के पंडित धर्मानंद द्विवेदी के दादा जी की प्रेरणा से उनके घर में जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की विग्रह मूर्तियों और मंदिर परिसर में बजरंगबली की मूर्ति की स्थापना करायी थी। मंदिर के भोग रागादि के लिए पुरगांव में जमीन दिए जाने का उल्लेख है। उनसे उनकी घनिष्ठ मित्रता थी। कदाचित  इसी कारण उन्होंने पंडित कौशलप्रसाद द्विवेदी को संस्कृत की शिक्षा के लिए बनारस भेजा था और उनकी शिक्षा का पूरा खर्च भी उठाया था। सुप्रसिद्ध साहित्यकार और तत्कालीन शिवरीनारायण के तहसीलदार ठाकुर जगमोहन सिंह सन् 1989 में प्रलय नामक पुस्तक लिखकर प्रकाशित कराये थे। उसमें महानदी में सन 1885 में आई बाढ़ का उल्लेख है इसमें माखन साव का भी उल्लेख है:-

बाढ़त सरित बारि छिन-छिन में। चढ़ि सोपान घाट वट दिन मे।
शिवमंदिर जो घाटहिं सौहै। माखन साहु रचित मन मोहै।।84।।
चटशाला जल भीतर आयो। गैल चक्रधर गेह बहायो।
पुनि सो माखन साहु निकेता।। पावन करि सो पान समेता।।87।।

        उनकी धार्मिकता और भक्ति को डां. भालचंद राव तैलंग ने  ‘‘छत्तीसगढ़ी, हल्बी, भतरी बोलियों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन’’ के अर्थतत्व पृ. 200 में उल्लेख किया है। विशेष घटना के कारण ‘‘खिच्रकेदार’’ को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा है:-‘‘रतनपुर का मंदिर जहां पहले माखन साव ने एक साधु को खिचड़ी परोसी थी और जहां पक़ी हुई खिचड़ी से भरी पत्तल को फोड़कर शिवजी प्रकट हुए थे। इस उद्धरण को रामलाल वर्मा द्वारा लिखित रायरतनपुर महात्म्य (पृ. 22) से लिया गया है।’’

        चित्रोत्पला-गंगा (महानदी) में अस्थि विसर्जन और पिंडदान को मोक्षदायी माना गया हैं कवि बटुक सिंह चौहान शिवरीनारायण सिंदूरगिरि माहात्म्य में लिखते हैं: -

शिवगंगा के संगम में कीन्ह अस परवाह।
पिंडदान वहां सो करे तरो बैंकुंठ जाय।।

      
बिलाईगढ़ जमींदार का सनद 
 कदाचित् इसीलिए माखन साव घाट और रामघाट में अस्थि प्रवाह के लिए एक-एक कुंड बना है। साव घाट में महेश्वर महादेव और शीतला माता का भव्य मंदिर है जो क्रमशः 
माखन साव परिवार के कुलदेव और कुलदेवी हैं।  मंदिर परिसर में सन् 1920 में एक संस्कृत पाठशाला खोली गयी थी। इस संस्कृत पाठशाला में सूरजदीन साव, विद्याधर साव, इच्छाराम साव, मन्नाराम साव, धन्नाराम साव, साधराम साव, लक्ष्मीप्रसाद साव, राघवसाव, मुरितराम साव, पंडित कौशलप्रसाद द्विवेदी, आदि अनेक लोगों ने शिक्षा ग्रहण की। इस पाठशाला में काशी से पंडित चतुर्वेदी जी को नियुक्त किया गया था। उनके पुत्र पं. रामचंद्र चतुर्वेदी हसुवा में रहने लगे थे, आगे चलकर उन्हें इस वंश के बहुत लोगों ने अपना गुरू बनाकर उनसे दीक्षा प्राप्त की थी। माखन साव घाट में अनेक सती चौरा, शिव लिंग, हनुमान और बरम बाबा की मूर्तियां हैं। अपने परिवार की सुख समृद्धि और वंश वृद्धि के लिए माखन साव ने महेश्वरनाथ का मंदिर निर्माण कराया था।  पं. मालिकराम भोगहा  ने  ‘‘शिवरीनारायण माहत्म्य’’  में एक जगह उल्लेख किया है:- ‘‘नदी खण्ड में स्थित महेश्वर महादेव का निर्माण संवत् 1890 में माखन साव के पिता श्री मयाराम साव ने कराया था ।’’  उनकी पूजा अर्चना से आज उनका परिवार वट वृक्ष की भांति फैल गया है।  मुझे खुशी है कि मैं इस वंश का बहुत छोटा पौध हूँ  । शिवरीनारायण के तहसीलदार और सुप्रसिद्ध साहित्यकार ठाकुर जगमोहन सिंह  ‘‘सज्जनाष्टक’’  में यहां के आठ सज्जन व्यक्तियों का परिचय लिखे हैं। उसमें वे माखन साव के बारे में लिखते हैं:-

माखन साहु राहु दारिद कहं अहै महाजन भारी।
दीन्हो घर माखन अरू रोटी बहुविधि तिनहो मुरारी।।
लच्छपती मुइ शरन जनन को टारत सकल कलेशा।
द्रव्यहीन कहं है कुबेर सम रहत न दुख को लेशा।
दुओधाम प्रथमहि करि निज पग कांवर आप चढ़ाई।
चार बीस शरदहु के बीते रीते गोलक नैना।
लखि अंसार संसार पार कहं मुंदे दृग तजि नैना।।

        माखन साव इस क्षेत्र के प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने बद्रीनाथ और रामेश्वर की पदयात्रा की थी। उस काल में तीर्थयात्रा पर जाना दुष्कर कार्य था। उस पर तीर्थयात्रा पदयात्रा करके पूरा करने उनके जैसे पुण्यात्मा के वश की ही बात थी। कदाचित्  यही कारण है कि मृत्यु को वरण करने के इतने वर्षो के बाद भी उन्हें बड़ी श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता है।

       माखन साव, महंत अर्जुनदास और पंडित यदुनाथ भोगहा शिवरीनारायण के आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट नियुक्त किये गए थे। उन्हें अंग्रेज सरकार द्वारा दरबारी नियुक्त किया गया और माफी बंदूक और अन्य हथियार रखने की अनुमति भी दी गयी थी। आगे चलकर माखन साव के पुत्र स्व.  श्री खेदूराम साव  को 17 मई सन् 1894 को  शिवरीनारायण तहसील के आनरेरी बैंच मजिस्टेट और दरबारी मुकर्रर किया गया था।  उन्हें भी माफी हथियार रखने की अनुति दी गयी थी। अंग्रेज अधिकारी उनकी बहुत इज्जत किया करते थे। इसी प्रकार माखन साव के पौत्र और खेदूराम साव के पुत्र  श्री आत्माराम साव  को 31.05.1920 को जांजगीर तहसील के  शिवरीनारायण के बेंच मजिस्ट्रेट मुकर्रर  किया गया था  और उन्हें 29 अक्टूबर सन् 1920 को  बिलासपुर जिले के दरबारी  मंजूर किया गया था। आज भी मेरे पास ब्रिटिश अधिकारियों के द्वारा अनेक कार्यक्रमों में ससम्मान आमंत्रित करने का निमंत्रण पत्र है। अंग्रेज सरकार द्वारा सन् 1926 में श्री आत्माराम साव को  ‘‘सर्वोतम कृषक’’  का तमगा प्रदान किया गया था। उन्हे राय बहादुर का खिताब भी दिया जाना तय हो गया था। लेकिन उन्होंने खिताब लेने से इंकार कर दिया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद मालगुजारी प्रथा समाप्त कर दी गयी। लेकिन माखन साव के वंशज अपनी कुलदेवी शीतला माता और कुलदेव महेश्वर महादेव की छत्रछाया में वट वृक्ष की भांति फैलते जा रहे हैं।

        शिवरीनारायण के अलावा हसुवा, टाटा और लखुर्री में महेश्वर महादेव का और झुमका में बजरंगबली का भव्य मंदिर है। हसुवा के महेश्वर महादेव के मंदिर को माखन साव के भतीजा और गोपाल साव के पुत्र  बैजनाथ साव , लखुर्री के महेश्वरनाथ मंदिर को सरधाराम साव के प्रपौत्र प्रयाग साव ने और झुमका के बजरंगबली के मदिर को बहोरन साव ने बनवाया। इसी प्रकार टाटा के घर में अंडोल साव ने शिवलिंग स्थापित करायी थी। सभी  मंदिरों के भोगराग और मरम्मत आदि के लिए कृषि भूमि निमाली गई थी जो परिवार के लंबरदार के नाम था। उनके रहते तक मंदिर की व्यवस्था अच्छी होती रही लेकिन बाद में अज्ञानता वश परिवारजनों ने उस कृषि भूमि को भी आपस में बांट लिये। आज माखन वंश के बिखराव और पारिवारिक कलह के लिए इस कृत्य को कारण माना जा सकता है। चूंकि माखन वंश के बहुत से लोग शिवरीनारायण में निवास करके व्यवसाय कर रहे हैं। इसलिए वे आपस में मिलकर महेश्वर महादेव और शीतला माता (देवी दाई) की पूजा अर्चना और मंदिर के मरम्मत आदि पर ध्यान देते हैं।

        वास्तव में माखन साव, धीरसाय साव के पौत्र और मयाराम साव के ज्येष्ठ पुत्र थे। वे सत्य निष्ठ, मृदुभाषी, परोपकारी और धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे। मन में जिज्ञासा होती है कि कौन थे माखन साव ? कहां से और कैसे आया उनका परिवार और आज उनके परिवार की क्या स्थिति है ?  धीरसाय साव  का परिवार रत्नपुर राज के  घुटकू  ग्राम का एक प्रतिष्ठत व्यवसायी परिवार था। राज दरबार में उन्हे विशेष सम्मान प्राप्त था। इनके पूर्वजों में जुड़ावन  साव और उनके पुत्र बसावन साव और उनके पुत्र धीरसाय को पित्र पुरूष के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। सन् 1740 की एक घटना चक्र में सभी वैश्य परिवारों को रत्नुपरराज का त्याग करना पड़ा। तब  धीरसाय का परिवार कटगी जमींदारी के अंतर्गत लवन खालसा के आसनिन गांव में आकर रहने लगा।  मान-सम्मान भरे जीवन का परित्याग और नवजीवन की शुरूवात....। इसी प्रकार अन्य वैश्य परिवार खैरागढ़राज, कवर्धाराज, सारंगढराज, सक्तीराज में जाकर बस गये। रत्नपुरराज से वणिक परिवारों के पलायन से वहां की अर्थ व्यवस्था प्रभावित होने लगी। तब धीरसाय की खोज हुई। लेकिन उन्होंने तो गुमनाम जिंदगी अपना ली थी। आसनिन गांव दो जमींदारी- कटगी और सोनाखान के संधि स्थल पर स्थित होने के कारण यथाशीघ्र उनका व्यापार चल निकला। उनका प्रमुख कार्य कृषि और व्यापार था। हसुवा, सोनाखान के जमींदार द्वारा पुरी के भगवान जगन्नाथ मंदिर में चढ़ाया हुआ गांव था। धीरसाय साव वहां कृषि कार्य करने लगे। आगे चलकर उसे जगन्नाथ मंदिर ट्रस्ट पुरी से धीरसाय साव ने सन् 1800 ई. में खरीद लिया और यहीं उनकी पहली मालगुजारी गांव हुई। उनकी मेहनत और लगन से हसुवा की जमीन सोना उगलने लगी। धीरे-धीरे जमींदारों, राज-महाराजा और मालगुजारों से मधुर सम्बंध बनते गए। धीरसाय के पुत्र मयाराम, सरधाराम और मनसाराम हुए। मयाराम साव हसुवा का काम देखने लगे। इसी प्रकार सरधाराम नवागढ़ और मनसाराम भटगांव में व्यापार करने लगे। सन् 1872 में सरधाराम के पुत्र शोभाराम की मृत्यु नवागढ़ में हो गयी और पुत्र शोक में उनका व्यापार प्रभावित होने लगा और अंत में वे अपना व्यापार समेटकर शिवरीनारायण आ गये। इसीप्रकार सन् 1869 में सरधाराम के पुत्र रतनलाल की मृत्यु हो जाने से वे भी अपना व्यापार समेटकर वापस शिवरीनारायण आ गये। शिवरीनारायण में तीनों भाइयों, पुत्र और पौत्रों की मेहनत से उनका व्यापार बढ़ा और गांवों की संख्या बढ़ी। अभिलेखों से प्राप्त जानकारी के अनुसार मयाराम साव के माखन, गोपाल, गोविंद और गजाधर मयाराम साव के चार पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र माखन साव का जन्म संवत 1869 तद्नुसार सन् 1812 में हुआ। ज्येष्ठ होने के कारण उनको सबका असीम स्नेह मिला। 17 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने परिवार की जिम्मेदारी उठाते हुए व्यापार में हाथ बटाने लगा। उन्होंने कोड़ाभाट में नमक का व्यापार शुरू किया। नमक के बदले धान लेकर शुरू किये व्यापार में उन्हें बहुत सफलता मिली। आगे चलकर धान की बाढ़ी देने और महाजनी का व्यापार शुरू किया। इसमें उन्हें आशातीत सफलता मिली और धीरे धीरे उन्होंने टाटा, झुमका, सितलपुर, बछौडीह, कमरीद म. नं. 1 लखुर्री और मौहाडीह गांव खरीदकर वहां के मालगुजार बने। व्यापार बढ़ने से जिम्मेदारियां बढ़ने लगी। एक एक करके दादा धीरसाय, पिता मयाराम और चाचा सरधा और मनसाराम की मृत्यु हो गयी। आगे चलकर सरधाराम साव के पौत्र सिरदार सिंह साव ने अपने चाचा ठुठवासाव के साथ लुखर्री को और मनसाराम के तीनों पुत्र सुखरूसाव, अंडोलसाव और गनपतसाव ने टाटा को अपना सदर मुख्यालय बनाया। इसी बीच अंग्रेज सरकार द्वारा सोनाखान जमींदारी के गांवों की संख्या कम करने और अर्थ व्यवस्था डगमगा जाने के कारण चिंतित जमींदार रामराय ने महाजनों से कर्ज लेना शुरू किया। कई वर्षो तक आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने से कर्ज लौटाने में वे अपने को असमर्थ पाने लगे जिससे उनकी कटुता व्यापारियों और जमींदारों से बढ़ने लगी। इसी कटुता के चलते और सन् 1784 में शिवरीनारायण के पुजारी भगीरथी भोगहा के आमंत्रण पर मायाराम साव अपने परिवार सहित शिवरीनारायण आ गये। यहां बसने के लिए उन्होंने न केवल भूमि उपलब्ध करायी, बल्कि उनके पुत्र भगीरथ भोगहा ने मकान बनवाने में मदद भी की। श्री भगीरथ भोगहा का कार्यकाल संवत् 1844 से 1860 था। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में माखन साव का खूब मान-सम्मान था। मुझे मेरे घर में अनेक राजा, महाराजा, जमींदारों की शादी और अनेक अवसरों के निमंत्रण पत्र मिला है जिससे उनके व्यक्तित्व का पता चलता है। आज भी लोग उनका नाम बड़ी श्रद्धा से लेते हैं। मान सम्मान भरा जीवन जीने के बाद फाल्गुन सुदि 2, संवत् 1949 (तद्नुसार सन् 1890) को 80 वर्ष की आयु में माखन साव स्वर्गवासी हुए। उनके सद्कार्य और महेश्वर महादेव तथा शीतला माता के पुण्य प्रताप के कारण ही आज उनका भरा पूरा परिवार है। ऐसे सम्पोषक देवाधिदेव महेश्वर महादेव को हमारा शत् शत् नमन ..।

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