स्मृतिशेष देवालाल

मेरे पुज्य बाबु जी : स्मृतिशेष देवालाल  

मैं बाबु जी का एकलौता पुत्र हूं। मेरी एक बहन मीना मुझसे दो साल बड़ी है। हम दो भाई बहन हैं। बाबु जी श्री देवालाल, चार भाई और दो बहनों में सबसे बड़े हैं इसलिए जिंदगी भर उनकी जिम्मेदारी सबसे ज्यादा थी। मेरे दो चाचा श्री सेवकलाल, श्री हेमलाल और दो बुआ श्रीमती चंदा बाई नकछेड़ प्रसाद (सारंगढ़) और श्रीमती रमा बाई श्यामप्रकाश (मंुगेली) हैं। एक चाचा श्री होलीदास बचपन में ही काल कवलित हो गये थे। मेरे दादा स्मृतिशेष राघव प्रसाद दो बहन और एक भाई में दूसरे नंबर के थे। उनकी एक बड़ी और एक छोटी बहन थी। लेकिन वे अकेले थे। बताते हैं बाबु जी पढ़ाई में बहुत तेज थे। शिवरीनारायण, सारंगढ़ और बिलासपुर के नार्मल स्कूल में वे मेट्रिक तक पढ़ने के बाद घर की जिम्मेदारी सम्हाल लिए थे। उन्होंने ‘‘देवालाल भैरोलाल‘‘ फर्म से एक मनिहारी दुकान खोला था। आगे चलकर इस मनिहारी दुकान में चाचा भैरोलाल ही बैठने लगे। तब बाबु जी ‘‘देवालाल सेवकलाल‘‘ नाम से महाजनी का लाइसेंस लेकर महाजनी करने लगे-ब्याज में पैसा देना और ब्याज के साथ पैसा वसूल करना। यह हमारा पुश्तैनी व्यवसाय भी था जिसे बाबु जी ने अपनाया और बहुत अच्छे से चलाया। उनकी उम्र 19 साल की थी तब सन् 1952 में बाबु जी की शादी हो गई। हमारा ननिहाल कवर्धा है। यहां के स्मृतिशेष श्यामलाल-श्रीमती भूरी बाई गुप्ता रेवेन्यु इंसपेक्टर (ब्रिटिश कालीन)  मेरे नाना और नानी थे। चार बहनों और एक भाई में मेरी मां श्रीमती मिथला बाई सबसे छोटी है। इसे संयोग या ईश्वरेच्छा कहा जाये कि मेरी मां की दूसरे नंबर की बड़ी बहन उर्मिला बाई जो बारह साल बड़ी थी, हमारे ही परिवार में श्री लक्ष्मीप्रसाद साव की पहली पत्नी के निधन हो जाने पर ब्याह कर आई थी। मां की दीदी वास्तव में मेरे दादा जी की भाभी थी। इसलिए उनसे मां का ‘‘बड़ी सास और बहू‘‘ का रिश्ता बन गया था। आगे चलकर मेरी मां का ब्याह भी इसी परिवार में हो गया था।

मेरे बाबु जी धीर, गंभीर और सोंच समझकर फैसला करने वाले व्यक्ति थे। उनकी गंभीरता के कारण वे परिवार के लंबरदार श्री सूरजदीन साव, उनके भाई श्री विद्याधर साव (हसुवा), श्री रामचंद्र साव, श्री साधराम साव (लखुर्री), श्री ईतवारीराम साव (टाटा), श्री पुनीराम साव (सारंगढ़), श्री नत्थूलाल साव (मुच्छमल्दा), श्री जगदीश प्रसाद (अधिवक्ता) बिलासपुर, श्री गौटियाराम (अधिवक्ता) जांजगीर और श्री तिजाऊप्रसाद (सरपंच) शिवरीनारायण के प्रिय और विचार विमर्श में सहयोगी थे। कदाचित इसी कारण परिवार के साथ साथ बाहर में भी उनकी बहुत इज्जत थी। इन सबके साथ वे अनेक परिवारों को टूटने से बचाया, उनकी समझाईश और सहयोग से अनेक परिवार न केवल बिखरने से बच गये बल्कि आज सुसम्पन्नता के साथ उनके बच्चे व्यापार में संलग्न हैं।

शिवरीनारायण में पहले बिजली नहीं थी, लालटेन और ढीबरी का जमाना था। भोगहापारा, महंतपारा और टिकरीपारा को मिलाकर शिवरीनारायण ग्राम पंचायत बना था। हमारे दादा श्री तिजाऊप्रसाद केशरवानी यहां के सरपंच चुने गये थे। उस समय शासकीय अनाज की बिक्री ग्राम पंचायत में वे स्वयं करते थे, राशन कार्ड में परिवार के सदस्यों के हिसाब से शक्कर और मिट्टी तेल मिलता था, शेष राशन गरीबों को दिया जाता था। अपने दुकान श्री साव स्टोर की व्यवस्था के बाद वे ग्राम पंचायत में बैठकर शासकीय अनाज ग्रामीणों को देते थे। फिर सन् 1967 में यहां बिजली आई। पहले गली मुहल्लों में बिजली का तार खींचे गये, बिजली खंभों में 40 वाट का बल्ब लगाकर रोशन किया गया, चैंक चैराहों में मरकरी लगाया गया। इस प्रकार शिवरीनारायण रोशनी से जगमगाने लगा। धीरे धीरे घरों में भी बिजली लग गई। दादा जी के कामों में मेरे बाबु जी का पूरा सहयोग होता था।शिवरीनारायण का मेला पूरे छत्तीसगढ़ में बहुत प्रसिद्ध है। पहले मेला मड़ई में मनोरंजन के साथ साथ किसिम किसिम की दुकानें, सिनेमा, सर्कस के अलावा जीवनोपयोगी सामानों की दुकानें भी आती थी, कृषि से सम्बंधित जरूरतों की खरीदी भी मेले में की जाती थी। मेला पहले माघ पूर्णिमा से एक माह तक लगता था और लोग अपनी जरूरतों के हिसाब से और आगामी शादी में लगने लगने की संभावना के हिसाब से खरीदते थे। मेले में खाने पीने के अलावा फोटो खींचवाने का भी अपना आनंद होता था। पहले जब फोटों खींचवाने के लिये फोटो स्टूडियों मेला में नहीं आते थे तो नागपूर से रूपकला फोटो स्टूडियों वाले छत्तीसगढ़ में महिनों रूककर सबका फोटो खींचते थे, आसपास के गांवों में भी जाकर फोटो खींचते और नागपुर में डेवलप करके डाक से भिजवाते थे। अधिकांश घरों में पुराने बुजुर्गों के फोटों उन्हीं का खींचा हुआ आज भी मिल जायेंगे। मेरे घर में अनेक लोगों के फोटों उन्हीं का खींचा हुआ है। मेरे बाबुजी का भी फोटो उन्होंने खींचा था। उनके पलंग के सिरहाने में आज भी उनका फोटा कांच में मढ़ा हुआ लगा है। मेले में हमारे गांव में रहने वाले परिवार जनों, भादा, लखुर्री, टाटा, झुमका, कमरीद, हसुआ, सिल्ली आदि से अवश्य आते थे। घर में रहने के लिए सबका एक एक कमरा होता था। गांव से नौकर चाकर और राशन लेकर आते, घर में बनाते खाते और मेला घूमते, खूब खरीददारी करते थे। सुबह महानदी चित्रोत्पला गंगा में स्नान ध्यान करते, पूजा पाठ करते और भगवान शबरीनारायण का दर्शन करते थे। उस समय हमारे घर में भी घर वालों की भीढ़ मेला जैसा ही होता था। सब एक दूसरे से मिलते, अपने जीवन के सुख दुख बांटते, सब एक दूसरे का हाल चाल जानते और एक साथ मेला का आनंद लेते थे। फिर सब अपने अपने गांव चले जाते थे।

बेटियों और नव विवाहिता बहुओं को मेला में जरूर बुलाया जाता था। सब मिलकर खूब मस्ती करते, घूमते, खरीददारी करते थे, चाट गुपचुप खाते थे। इसके लिए उन्हें अलग से पैसा मिलता था। इसीलिए सबको मेले का इंतजार होता था। मेरी बुआ चंदा और कुमुदनी बताती हैं कि हमस ब बेटियां तुम्हें और मीना दीदी को अपने साथ लेकर मेला घूमने चली जाती थी। सबको अपने बच्चों की शादी करने की चिंता होती थी। मेले में सबके मिलने जुलने से रिश्तेदारी पता चलता और मंगनी जंचनी भी हो जाती थी। मेला में शादी के लिए सामानों की खरीददारी भी कर लेते थे। मेला समाप्ति के बाद भी बहुत से दुकानें एक सप्ताह और लगती थी। बाबु जी बेटियों के बच्चों की शादी ब्याह की जरूरत के हिसाब से बर्तन, पेटी, गद्दे आदि की खरीददारी करवाते थे। हर साल ऐसा करने से लगभग सभी व्यापारी बाबु जी से परिचित थे। हमारे समाज की बहू बेटियां यहां के मदिरों में साल भर दिया बाती जलाती थीं और उसका उद्यापन करती थी और संकल्प करके उसे पूरा करती थीं। एक बार सब महिला मिलकर थोड़ा थोड़ा चांदी इकट्ठा करके शबरीनारायण मंदिर में चढ़ाये। मेरे बाबु जी कलकत्ता जाकर उससे चांदी का दरवाजा बनवाकर ले आये और शिवरीनारायण के मदिर के गर्भ द्वार पर लगवा दिये। आज भी दरवाजा सुरक्षित है और ‘‘केशरवानी महिला समाज‘‘ और बाबु जी के कार्यो की याद दिलाती है।

शिवरीनारायण का घर 
घर में बिजली आ गई, तब घर के कोला में बोरिंग भी बाबु जी लगवा दिये साथ में कोला में फर्शी पत्थर भी लगवा दिये। क्यारी बनवा कर उसमें पेड़ पौधे लगा दिये। मुझे बहुत अच्छे से याद है कि घर में नल की खुदाई हेमलाल केशरवानी के निर्देशन में हुआ और उन्होंने बोरिंग फिट किया था। जब नल खराब होता तो वे ही आकर नल को बनाते थे। हमारे घर में ही नहीं बल्कि शिवरीनारायण में अधिकांश बोरिंग उन्हीं के हाथों लगा है। उनके बड़े भाई श्री रामप्रसाद केशरवानी का प्रसिद्ध होटल था। लोग उसे रामप्रसाद होटल के नाम से ही जानते थे। इस होटल का खोवे का पेड़ा, बालुशाही, लौंगलता बड़ा प्रसिद्ध था। दोनों भाईयों को बाबु जी का भरपूर सहयोग मिला था। हेमलाल जी पहले उदित सेठ के आरा मिल में काम करते थे और घरों में बोरिंग लगाते थे। उनकी शादी में मैं बाबु जी के साथ मुंगेली बारात गया था। बाबु जी के सहयोग से पहले वे अपने भाई के साथ काम करते थे। बाद में बाबु जी के आर्थिक सहयोग से उन्होंने होटल के भीतरी भाग में फैंटा शर्बत बनाने का कार्य करने लगे थे। इसी प्रकार न जाने कितने लोगों को आर्थिक सहयोग करके समुन्नत किया था। 

   

प्रांजल और अंजल कुमार (पोतों ) के साथ 
 महानदी में नहाने का अपना आनंद था, तैरने में हमें बहुत मजा आता था। नदी में बरसात में खूब बाढ़ आता था। कभी कभी बाढ़ का पानी बस्ती में आ जाता था। सन् 1970 में यहां खूब बाढ़ आया था, प्रमुख बाजार में पानी भर गया था। इस बाढ़ में नदी किनारे रखे हमारे लकड़ी की बल्ली बह गया था। उस समय बाबु जी अर्जुनी के जंगल का ठेका लिये थे। वहां से बांस बल्ली कटवाकर लाते और बेचते थे। उसके स्टोरेज के लिए गिधौरी और शिवरीनारायण में महानदी के किनारे बनवाये थे जो बाढ़ में बह गया। उस समय बाबुजी को खूब नुकसान हुआ था। महाजनी भी मंदा हो गया था। जो लोग ब्याज में पैसा ले गये थे वे उसे लौटाने में आनाकानी करने लगे थे। बाबुजी को इसमें भी घाटा होने लगा, ,खूब पैसा डूब गया। कहते हैं विपत्ति आती है तो चारों तरफ से एक साथ आती है और, यही मेरे बाबुजी के साथ हुआ। सन् 1971 में दीदी की शादी मुंगेली (पथरीया) के श्री अनंदत्त गुप्ता के तृतीय पुत्र श्री प्रमोद गुप्ता के साथ धूमधाम से हुई। लेकिन इसी समय से बाबु जी की आर्थिक स्थिति खराब हो गई और भाई भी पराये हो गये थे। उनके उपर अनेक प्रकार के लांछन भी लगाये गये थे। लेकिन अपनी धीरता उन्होंने नहीं छोड़ थी और ईश्वर के उपर सब कुछ छोड़कर अपना कर्म करते रहे।

लगभग तीन हजार आबादी वाला हमारा शिवरीनारायण गांव के विकास में सरपंच दादा तिजाऊप्रसाद केशरवानी के साथ बाबु जी, गोवर्धन शर्मा, उदित सेठ, गणेश नारनोलिया, अहमद खां, गणेश केडिया, वृंदाप्रसाद केशरवानी, बल्दाऊ प्रसाद केशरवानी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। सब में मतभेद होता जरूर था लेकिन गांव के विकास में सबका योगदान अवश्य रहता था। सबसे पहले ग्राम पंचायत का राजस्व बढ़ाने के लिए स्थानीय स्तर पर सब्जी बाजार लगवाया गया जो आगे चलकर हजारों रूपये का राजस्व देने लगा। महानदी में तरबूज लगाने के लिए महाराष्ट्र के किसानों को आमंत्रित किया गया। स्कूल भवन की मरम्मत और अतिरिक्त कमरों के निर्माण के लिए शासकीय राशि स्वीकृत करायी गई। स्टेट बैंक खुलवाया गया, श्री बल्दाऊ प्रसाद केशरवानी के सहयोग से शासकीय चिकित्सालय खुलवाया गया, स्टेट ट्रांसपोर्ट का डिपो खुलवाया गया। शिवरीनारायण को ग्राम पंचायत से पहले नगरपालिका फिर नगर पंचायत बनवाया गया। साप्ताहिक मवेशी बाजार जो पूरे छत्तीसगढ़ का बहुत बड़ा मवेशी बाजार था, के राजस्व वसुली का अधिकार नगर पंचायत को दिलाया गया जिसकी वसुली पहले जनपद पंचायत जांजगीर करती थी और जिसे दिलाने में पामगढ़ के तत्कालीन विधायक श्री शिवप्रसाद शर्मा का योगदान था। इसी प्रकार वार्षिक लगने वाले बृहद मेला के राजस्व वसुली का अधिकार जनपद पंचायत जांजगीर से नगर पंचायत शिवरीनारायण को दिलाया गया। महानदी के तटवर्ती क्षेत्रों में मिट्टी के कटाव रोकने के लिये प्रयास किये गये। कन्या स्कूल खुलवाया गया। शिवरीनारायण के विकास में स्थानीय लोगों के साथ साथ मध्यप्रदेश के  सभी तत्कालीन केबिनेट मंत्री श्री बिसाहुदास मंहत, मुख्य मंत्री श्री श्यामाचरण शुक्ला, केन्द्रिय मंत्री श्री विद्याचरण शुक्ला, डाॅ. रामाचरण राय, श्री चित्रकांत जायसवाल, श्री बेदराम कुर्रे, मुख्य मंत्री श्री प्रकाश चंद्र सेठी, श्री बंशीलाल धृतलहरे का बहुत सहयोग मिला है। बाबु जी हमेशा इनसे मिलते रहते थे, भोपाल जाकर भी इन मंत्रियों के सहयोग से काम करवाते थे। सभी से मेरे बाबु जी का पारिवारिक सम्बंध बन गया था। जब भी उनका आगमन यहां होने को होता, बच्चों की हमारी टोली गांव को सजाने के लिए वंदनवार, माला और झंडा आदि बनाने में जुट जाते थे। दादा श्री तिजाऊप्रसाद जी ने जब सरपंच का पद छोड़ा तब पंचायत के खाते में इतना खर्च करने के बाद लाखों रूपये जमा थे और सालाना राजस्व आने के रास्ते बन चुके थे। आज हमारा शिवरीनारायण एक पूर्ण विकसित नगर और व्यापारिक संस्थान बन चुका है, आवागमन के पर्याप्त साधन हैं। महानदी में पुल बन चुका है, तटवर्ती क्षेत्रों में कटाव रोकने के लिए सीमेंटेड घाट और नदी किनारे मेरिन ड्राईव, गार्डन आदि बन चुके हैं। चारों ओर विकास की बयार है। ये इसलिए हो सका है कि पूववर्ती लोगों ने विकास की मजबूत नींव रखी थी। आज छत्तीसगढ़ प्रदेश में अत्याधिक राजस्व होने के कारण आबंटन भी पर्याप्त मिल रहा है और विकास कार्य भी हो रहे हैं। मगर हमें उन पुण्यात्माओं को कभी विस्मृत नहीं किया जाना चाहिये जिनके सहयोग से विकास की मजबूत नींव रखी गई थी। गांव के विकास में निश्चित रूप से सबका योगदान है, समय के हिसाब से सबने  अपना योगदान दिया है।

राघव साव (पिता जी )
मेरे दादा जी तो शुरू से संत पुरूष थे और घर की जिम्मेदारी पूरी तरह से बाबु जी के कंधे पर थी इसलिए वे घर परिवार की जिम्मेदारी से लगभग मुक्त थे। वे हमेशा कहते थे कि मैं सब कुछ तुम्हारे बाबु जी को सौंप दिया है। खरसिया में मुख्य नगरपालिका अधिकारी के रूप में कार्यरत् मुंगेली निवासी श्री गणेशप्रसाद केशरवानी अपने सुपुत्र भानू प्रकाश के लिये हमारे घर लड़की देखने आये और सुमित्रा दीदी को पसंद कर लिए। उन्होंने बताया कि मेरा एक लड़का श्यामप्रकाश भी है और दोनों की शादी एक साथ करना चाहते हैं। तब उन्होंने हमारी रमा बुआ जो पांचवीं की परीक्षा दी थी, उसे दिखाने पर पसंद कर लिए और 23 अप्रेल 1966 को सुमित्रा दीदी और रमा बुआ की शादी हो गई। मुझे अच्छे से याद है हम उस समय खूब मस्ती किये थे। शादी के समय महिलाओं के द्वारा ‘‘गारी गीत‘‘ गाया जाता था, इस गीत पर सभी खूब हंसते थे। गर्मी का दिन, हाथ वाले पंखे की हवा एक मात्र सहारा था। एक हाथ से गमछे से पसीना पोंछते और महिलाओं की गारी गीत सुनकर धीरे धीरे हंसते भी थे। उस जमाने के हिसाब से बहुत शानदार शादी हुई थी। शादी के बाद बिदा होते समय सभी महिलाएं एक एक कर बेटी के साथ गले लगकर खूब रोती थीं। खूब कलेवा झांपी में भरकर दिया जाता था। कपड़े लत्ते पेटी में भरकर दिया जाता था। गहने, बर्तन भाड़ा आदि सब कुछ होता था। तब मैं दूसरी कक्षा में पढ़ रहा था। रमा बुआ जब चैंथी कक्षा में पढ़ रही थी तब बाबु जी के कहने पर उन्होंने ही मुझे पहली कक्षा में भर्ती कराया था। स्कूल के प्रधान पाठक मुझे एक हाथ से दूसरी ओर के कान को छूने के लिए बोले और मेरे कान छू लेने से उन्होंने मुझे पहली कक्षा में भर्ती कर लिया था। बुआ बताती है कि प्रधान पाठक के पूछने पर मैंने उन्हें अपना नाम ‘‘पप्पू राजा‘‘ बताया था। क्योंकि घर में मुझे सब पप्पू राजा के नाम से ही पुकारते थे। 
देवलाल ,सेवकलाल और हेमलाल (तीनों भाई )

चाचा सेवकलाल पहले बिलासपुर में फिर रायपुर में जाकर पढ़े थे। दोनों जगह हमारा पारिवारिक घर था जिसे मालगुजारी कोर्ट कछहरी मामले और बच्चों की पढ़ाई करने के लिए बनवाया गया था। वहां साफ सफाई और खाना बनाने आदि के लिए नौकर चाकर भी रहते थे। सेवकलाल चाचा बिलासपुर के बाद रायपुर में जाकर पढ़ाई किये। इसी प्रकार बंशीलाल चाचा भी रायपुर में पढ़ाई कर रहे थे। इसी समय उनके पिता जी लक्ष्मीप्रसाद साव का 26 जून 1948 को निधन हो गया था तब उनके चाचा श्री नारायण प्रसाद उन्हें पढ़ाने में अपनी असमर्थता जताते हुए बुलवा लिए थे। उस समय बंशीलाल चाचा एम.एस-सी. की पढ़ाई के लिए सागर जाने के लिए तैयार थे। इस प्रकार असमय आई विपत्ति के लिए वे कतई तैयार नहीं थे तब मेरे बाबु जी ने उन्हें समझाते हुए पढ़ाने का आश्वासन दिया। तब जाकर उन्होंने अपनी पढ़ाई सागर में पूरी की। दोनों चाचा क्रमशः बंशीलाल चाचा की शादी मुंगेली के प्रतिष्ठित मालगुजार श्री विश्वनाथ प्रसाद गुप्ता की सुपुत्री तारामणी से हुआ। उनकी बड़ी बहन भी हमारे घर में श्री साधराम साव लखुर्री के ज्येष्ठ सुपुत्र फुड इंस्पेक्टर श्री शोभाराम केशरवानी से हुई थी। इसी प्रकार सेवकलाल चाचा की शादी और चंदा बुआ की शादी सारंगढ़ के क्रमशः श्री मालिकराम साव की सुपुत्री राजकुमारी से और श्री गयाराम साव के ज्येष्ठ सुपुत्र नकछेड़ प्रसाद के साथ सानंद सम्पन्न हो गया। हमारे घर में बच्चों की शादी घर के बड़े बजुर्ग घर परिवार देखकर तय कर देते थे, किसी को लड़के लड़की देखने की सुविधा नहीं थी। समाज में सामूहिक विवाह का प्रचलन बहुत दिन नहीं हुआ है जबकि हमारे घर में हर साल पांच छः लड़के लड़कियों की शादी एक ही मंडप में होता था। हमारे घर में सामूहिक विवाह बहुत पहले से होते आ रहा है। शादी होने के बाद साल दो साल बाद गौना होने के बाद वर वधू साथ मिलते थे। तब सेवकलाल चाचा चाची को लाने के लिए मना कर दिये। बहुत समझाने के बाद ही तैयार हुए थे। वे पहले कसडोल में फिर राहौद के एक स्कूल में पढ़ाने लगे थे। तब बाबु जी की महाजनी बहुत अच्छी चल रही थी। बैंकिंग कार्य से उन्हें बिलासपुर जाना पड़ता था। एक बार स्टेट बैंक बिलासपुर के ब्रांच मैंनेजर श्री शारदा साहब से बाबु जी ने चाचा सेवकलाल के पढ़कर खाली रहने और बैंक में नौकरी लगाने की बात की। अच्छा परिचय होने के कारण उन्होंने इंटरव्यू में भेजने के लिए कहा। तब आवागमन की उतनी सुविधा नहीं थी जितनी आज है। किसी तरह चाचा को खबर देकर शिवरीनारायण बुलवाया गया और बिलासपुर में जाकर इंटरव्यू की बात बतायी गयी। उस समय गोवर्धन शर्मा ठेकेदारी का काम करते थे और बिलासपुर रोड में उनका काम चल रहा था। उनके पास एक ट्रक था, जिसमें निवेदन के साथ चाचा को बिलासपुर भेजा गया मगर चाचा इंटरव्यू के समय वहां नहीं पहुंच सके, दूसरे दिन पहुंचकर वस्तुस्थिति की जानकारी देने पर शारदा साहब ने बाबु जी का लिहाजकर उन्हें स्टेट बैंक बिलासपुर में नौकरी पर रख लिए। रहने के लिए बिलासपुर के विद्यानगर में किराये पर एक मकान लिया गया। हमारे परिवार से वे पहले व्यक्ति थे जो नौकरी करने बिलासपुर गये थे। बाबु जी उनके लिए चांवल साफ करवाकर घी के साथ पहुंचाते थे, गर्मी में वहां रहकर साल भर के लिए राशन की व्यवस्था भी करते थे क्योंकि उस समय चाचा का वेतन ज्यादा नहीं था लेकिन फिर भी पर्याप्त था। एक बार मकान मालिक किराया के लिए बोल दिये तो चाचा जी इतने नाराज हो गये कि बैक से आकर शाम को घर खाली कर दिये। रात में क्या करें, कहां जाये, कुछ सूझ नहीं रहा था। जब चाचा जी का गुस्सा शांत हुआ तो चाचा चाचाी बच्चों के साथ चाची की दीदी जीजा श्री छतराम केशरवानी जो विद्यानगर में ही रहते थे, के घर रहे और हम बिद्यानगर में ही रह रहे हमारे परिवार के दादा श्री कौसल प्रसाद केशरवानी के घर रात गुजारी। सुबह चाचा जी ने बाबु जी को सीधे सीधे कह दिया कि मैं अब किराये के घर में नहीं रह सकता। बाबु जी सुलझे हुए व्यक्ति थे, उन्होंने चाचा को शीघ्र घर खरीदने का आश्वासन दिया और गोंड़पारा स्थित शांति निवास में किराये में रहने की व्यवस्था कर दी। 

        

चंदा और रमा (दोनों बहन )
उस समय छितानी मितानी दुबे जो बिलासपुर में निराला नगर (पहले इसे कुम्हारपारा कहा जाता था, यहां पर काछी लोग सब्जी उगाते थे) नामक कालोनी का निर्माण कर बेच रहे थे। उस कालोनी में सेवकलाल चाचा के लिए एक मकान, श्री बंशीलाल चाचा के लिए मकान और श्री बल्दाऊ फूफा के लिए मकान खरीद लिये। लेकिन मकान का पैसा जमा करने के लिए हुंडी मिला जिसके अनुसार घर का पैसा मुंगेली के श्री अम्बिका साव के पास जमा करना था। तब बाबु जी घर से एक किलो सोना बेचा जो दस हजार रूपया का हुआ और घर बारह हजार का था। दस हजार तो तत्काल दे दिया गया और दो हजार को चाचा को देने के लिए कहा गया लेकिन चाचा उस पैसा को समय में जमा नहीं किये जो व्याज के साथ चार हजार हो गया। मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि सेवकलाल चाचा ने अपनी जिंदगी में कुछ भी नहीं बनाया। वेतन से जो कुछ मिला उसे खर्च कर दिया। पता नहीं उन्हें बाबु जी और घर से क्या उम्मीदें थी ? मैं यह भी जानता हंू कि बाबु जी हमेशा चाचा के लिए चांवल, धी घर से ले जाते थे और गर्मी के दिनों में बिलासपुर में ही अन्य राशन साल भर के लिए खरीद देते थे। हम भी अपना घर समझकर वहां जाते और रहते थे। चाची की डिलवरी में मेरी मां वहां महिनों रहकर उनकी सेवा करती थी। एक एक साल में बच्चे होने के कारण पहले मुन्ना (संजय) और बाद में रानी (अंजुलता) को मां अपने पास शिवरीनारायण ले आई थी। लेकिन चाचा चाची को ऐसा लगा कि उनके बच्चे शिवरीनारायण में रहकर बिगड़ते जा रहे हैं, और उन्हें बिलासपुर ले गये। रानी को इसी प्रकार वे सोते में बिलासपुर ले गये, जब वह सोकर उठी और मां को नहीं देखी तो वह खूब रोई, स्थिति इतनी बिगड़ गई कि उन्हें तेज बुखार हो गया, रो रोकर रानी का बुरा हाल हो गया था, बस, एक ही बात दुहराती कि अम्मा के पास जाऊंगी ...। चाची को वह अपनी मां नहीं समझ रही थी क्योंकि जब से वह समझने लायक हुई है तब से मेरी मां के पास थी और उन्हें ही ‘‘अम्मा‘‘ कहती थी। तत्काल मां को बिलासपुर भेजा गया और आश्चर्य तब हुआ जब रानी मेरी मां के गोद में आई तो उनका तेज बुखार तत्काल उतर गया, वह एकदम स्वस्थ हो गई। लेकिन मां तब समझ गई कि अब किसी के बच्चे को अपने पास नहीं रखेगी क्योंकि आखिर में अपयश मिलता है। 
यादगार पल परिवारजनों के साथ 

        सन् 1970 में बाबु जी को लगा कि महाजनी के साथ कुछ व्यवसाय किया जाये ? उन्होंने शिवरीनारायण के श्री गावर्धन शर्मा और श्री सेवकलाल श्रीवास के साथ मिलकर हमारे पैत्रिक गांव हसुवा के पास अर्जुनी महाराजी का जंगल ठेका लिए। वहां से लकड़ी का गोला लाकर बिलासपुर में बेचते थे। बहुत सारे लकड़ी का गोला लाकर नदी के किनारे गिधौरी में रखे थे क्योंकि उस समय महानदी में पुल नहीं था, गर्मी में जब उसमें रपटा बनता था तब उसे लेकर बेचा जाता था। लेकिन विपदा तो एक साथ आती है, सन् 1970 की गर्मी में जब रपटा बना था और टूटने के पहले सब लकड़ी का गोला हटाया नहीं जा सका और खूर बारिश होने के कारण रपटा टूट गया। महानदी में खूब बाढ़ आ गई, गिधौरी में बारह फीट पानी भर गया और सब लकड़ी का गोला बह गया। इस समय बाढ़ का पानी बस्ती के साथ मुख्य बाजार में भर गया। पूरा नगर टापू जैसा लगने लगा था, सबका खूब नुकसान हुआ।  बाबु जी की महाजनी व्यापार भी अच्छे से नहीं चल रहा था, पुराने पैसे की वसूली नहीं हो रही थी और जंगल के ठेके में भी खूब नुकसान हो गया, इससे बाबु जी बहुत निराश हो गये। अब बाबु जी पंडित और ज्योतिष को अपना कुंडली दिखाकर भविष्य में रखे जाने वाली सावधानी जानने का प्रयास करने लगे। पंडितों ने उनकी जन्म कुडली के आधार पर बताया कि आपका जन्म बड़े मूल नक्षत्र में हुआ है और कुडली के हिसाब से शनि का साढ़े साती चल रहा है, बजरंग बली की शरण में जाइये। ऐसे ग्रह नक्षत्र वाले या तो घर भर देते हैं या पूरी तरह से खाली कर देते हैं। बाबु जी यह जानकर भयभीत हो गये, उन्होंने सोंचा कि मेरे घर भरने के दिन तो गये, लगता है घर खाली होने का समय आ गया ? 

        कहते हैं विपत्ति आती है तो चारों ओर एक साथ आती है। बाबु जी के जंगल ठेके में हुए नुकसान की बात जानकर उन्हें लगा कि घर के जेवरों को भैया बेंच देंगे और सब खाली हो जायेगा, उन्होंने बाबु जी को बहुत बुरा भला कहा और तिजोरी की चाबी के साथ सब कुछ अपने हाथ में ले लिया। बिलासपुर में उस समय मैं भी था जब चाचा जी बातों ही बातों में बाबु जी को ‘‘अब हमारा आपका सारा रिश्ता टूट गया....?‘‘ कह दिया। उस रात बाबु जी बहुत दुखित हुए और बिना खाये घर से निकल गये। लेकिन बंशीलाल चाचा बाबु जी को किसी तरह अपने घर ले आये और सेवकलाल चाचा के कृत्यों की माफी मांगने लगे। उस रात भर बाबु जी सो न सके और रोते रहे। मेरे बाल मन में कुछ समझ में नहीं आ रहा था। अगली सुबह हम शिवरीनारायण लौट आये थे। मैंने देखा कि बाबु जी बुझे बुझे से रहते थे, जीवन में दूसरों का सहारा बनने वाले बाबु जी को आज सहारे की जरूरत थी। मैं बड़ा हो रहा था, मीडिल स्कूल से हायर सेकंड्री स्कूल की पढ़ाई पूरी कर लिया और कालेज की पढ़ाई के लिए बिलासपुर जाने की सोंचने लगा। बाबु जी कुछ बोलते नहीं थे बल्कि गंभीरता से विचार करते थे। जब मैं बिलासपुर जाकर सी.एम.डी. कालेज में एडमिशन लिया उसी समय सेवकलाल चाचा ट्रांसफर ले लिए और घर को किराये में उठा दिये। शायद उन्हें ऐसा लगा हो कि मैं बिलासपुर के घर में रहूंगा, धीरे से मैं कब्जा भी कर सकता हूँ ? खैर, बंशीलाल चाचा सी.एम.डी. कालेज में प्रोफेसर थे, उनके उपर बाबु जी का बहुत एहसान था, इसका अहसास उन्हें था और मेरे पढ़ते तक उन्होंने मेरी मद्द की। श्री बल्दाऊ फूफा का एक अन्य मकान तेली पारा में भी था जहां घनश्याम केशरवानी और अलगूराम रहकर पढ़ रहे थे। वहां मेरे रहने की व्यवस्था बाबु जी ने कर दी और खाने के लिए गोलबाजार के शाकाहारी बासा में हो गया, कालेज जाने के लिए एक पुरानी सायकिल खरीदकर दे दी। कुछ दिन तो बिलासपुर में एडजस्ट करने में लगा फिर मेरी पढ़ाई पटरी पर आ गई। शिवरीनारायण जो बहुत लोग बिलासपुर खरददारी करने जाते थे, रात्रि हो जाने पर मेरे पास आ जाते थे, रात्रि में पिक्चर देखते और सुबह सब चले जाते थे। गांव में अपनापन तो होता ही है, नहीं कहते बनता था और इस वर्ष मैं परीक्षा में फेल हो गया। बाबु जी के साथ मैं भी रिजल्ट से निराश हो गया, बंशीलाल चाचा ने भी खूब डांटा, बाबु जी ने तो आगे नहीं पढ़ाने की बात कह दी। समय गुजर गया और कालेज में पुनः एडमिशन होने लगे। मैंने बाबु जी से पढ़ाई के लिए से एक मौका देने के लिए निवेदन किया औरे वादा किया कि अगर इस बार असफल हो गया तो आगे पढ़ाई नहीं करूंगा। तब बाबु जी मान गये और पुनः बिलासपुर में पढ़ाई करने की अनुमति दे दिये साथ में आर्थिक प्रतिबंध भी लगा दिये। उसके बाद मैं गोंड़पारा के शांति निवास में रहने लगा, मेरे साथ पथरीया के नवल गुप्ता भी थे। बाबु जी घर किराया, बासा और कालेज फीस के अलावा एक रूपया प्रतिदिन पाकिट खर्च देने लगे। कुल दो सौ रूपये मासिक जिसमें मैं बिलासपुर में बी.एस-सी. और रायपुर से एम.एस-सी. की पढ़ाई पूरी किया।

      

 बिलासपुर में उस समय मेरा संपर्क वीरेन्द्र केशरवानी भैया से हुआ। वे बिलासपुर कोआपरेटिव्ह बैंक सदर बाजार शाखा में क्लर्क थे। उन्होंने वहां मेरा एक बचत खाता खोल दिया। मैं घर से पैसा लाता तो वहां जमा कर देता और आवश्यकतानुसार बैंक से निकालकर खर्च करता। मितव्यता का मुझे पूरा ख्याल रहता था। अब शिवरीनारायण से यहां कोई नहीं आता था, मेरे मित्रों में केवल बिजय केशरवानी ही आता था। मैं भी अब नये संकल्प के साथ पढ़ाई करने लगा। मेरी पढ़ाई रंग लाया और मैं सफलता की सीढ़ी चढ़ते गया। बी.एस-सी. फायनल में परीक्षा के दिनों में मुझे मेरे पारिवारिक भाई चंद्रमूल केशरवानी परेशान करने लगा। कभी पैसे मांगता तो कभी पैसा नहीं देने पर मारने की धमकी देने लगा। एक बार उन्होंने मेरे साथ मारपीट भी किया। एक दो बार गोड़पारा के घर में मारने के उद्देश्य से आ गया तब गोंड़पारा के मित्रों ने उसे भगाया और चेतावनी दी कि भविष्य में वह यहां आया तो बचकर नहीं जा सकेगा । मेरी परेशानी देखकर बाबु जी बहुत चिंतित हुए। चंद्रमूल के पिता जी से बाबु जी की बहुत अच्छी जमती थी। उनका सारा काम बाबु जी किया करते थे। इसलिए उन्हें बड़ा दुख हुआ और उसके बाद उनके घर जाना छोड़ दिये। मैं 15 दिनों तक परीक्षा के दिनों में विद्यानगर में भाई शत्रुघन, खेमराज (भटगांव), प्रमोद (सारंगढ़) के साथ रहा। वे लोग नवागढ़ वाले श्री छतराम केशरवानी के घर में किराये से रहते थे। अब यह तो निश्चित हो गया था कि मुझे आगे की पढ़ाई के लिए बिलासपुर से बाहर जाना है।

        बहरहाल, मैं पुनः सागर में एम.एस-सी. करने नहीं जा सका और शासकीय विज्ञान महाविद्यालय रायपुर से मेरिट में एम.एस-सी. पास किया। जब मेरा फोटो अखबारों में छपा तो मैंने बाबु जी के चेहरे पर गर्विली मुस्कान देखा। मेरे मेरिट में आने से हमारा पूरा परिवार खुशी से झूम उठा। वैसे तो हमारे परिवार में बहुत से लोग देश के अच्छे से अच्छे शिक्षण संस्थानों से पढ़कर आज अच्छी पोजिशन में हैं लेकिन चाचा श्री रामस्वरूप केशरवानी जब मेट्रिक की परीक्षा में मेरिट में आये थे तब उन्हें बाजे बाजे के साथ पूरे नगर में घुमाया गया था। यहां भी मैंने मितव्ययता के साथ खर्च किया। परीक्षा पास करने के बाद भी रायपुर के मेरे बचत खाते में दो तीन हजार रूपये जमा थे। आगे भी यह मेरे जीवन का एक अंग बन गया। जहां अवश्यकता हो वहां जरूर खर्च करें और जहां न हो वहां न करें। जीवन में उतार चढ़ाव तो होते ही रहते हैं, बाबु जी के जीवन में भी ऐसा ही मोड़ आया और गुजर गया। उनकी धीर गंभीर और आत्म विश्वास भरे जीवन में भी खुशियां आ गई जब मेरी शादी मुंगेली में स्व. अम्बिका प्रसाद साव की पौत्री और श्री निर्मलप्रसाद केशरवानी की सुपुत्री कल्याणी से हुआ। उनसे मेरा लग्न होने से लेकर विवाह होकर आने से हमारे दिन फिरने लगे थे। स्नेह से वे कल्याणी को ‘‘रानी‘‘ संबोधित करते थे और जीवन भर उन्हें वे रानी ही बनाकर रखे थे। मुझे बहुत अच्छे से याद है जब कल्याणी शादी के बाद पहली बार मुंगेली गई थी। शिवरीनारायण मेला शुरू होने के पहले यह कहकर कल्याणी को मुंगेली से बुलवा लिये कि हमारे नगर का प्रसिद्ध मेला है। रात्रि में बकायदा उन्हें मेला घुमाने ले जाते और गुप्ता होटल के मिष्ठान अवश्य खिलाते थे। मुंगेली में भले ही मेला ठेला के भीढ़ भाड़ पसंद नहीं है लेकिन बाबु जी की बात को टालना उचित नहीं समझकर कल्याणी को विदा कर दिये थे। वे कल्याणी से कहते कि ‘‘रानी, तुम भी अपना खाना निकाल लो, एक साथ खायेंगे‘‘ और पूरा परिवार एक साथ बैठकर खाना खाते थे। परिवार में हमें एक साथ बैठकर खाते देखकर न जाने क्या क्या बातें करते थे मगर बाबु जी को किसी की परवाह नहीं था। वे कल्याणी की बात को कभी नहीं टाले बल्कि ध्यान से सुनते और उसे करने का प्रयास करते थे। कभी कभी अम्मा के कारण घर में कुछ परेशानी हो जाती तो वे उन्हें साथ लेकर गांव बेलादुला या शिवरीनारायण ले जाते थे। हमारी अम्मा को हमारे साथ बाबु जी की पोजिशन के कारण बड़ा घमंड था। काम तो करती थी लेकिन परिवार जनों को खरी खोटी भी सुनाने में कभी पीछे नहीं रही। बाबु जी की सभी इज्जत किया करते थे इसलिए अम्मा को भी कोई कुछ नहीं बोल पाते थे। आज भी उनके स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आया है।


        मैं रायगढ़ में जब तक रहा, बाबु जी और अम्मा हमारे साथ रहे। उनका विचार था कि रायगढ़ में मकान बनवा लूं और मकान मालिक से छोटा मोटा जमीन मकान बनवाने के लिए मुझे दे दें। मकान मालिक श्री चंद्रमणि सिंह ठाकुर की रायगढ़ के कोतरा रोड में बहुत जमीन थी जिसे वे समय समय पर बेंच देते थे। वे जब तक मुझे जमीन देने के लिए मन बनाते तब तक मेरा ट्रांसफर चांपा हो गया और मैं 30 जुलाई 1988 को चांपा आकर ज्वाईन भी कर लिया। तृप्ति के पैदा होने से बाबु जी बहुत खुश हुए थे फिर एक एककर टिसू और विशु का भी जन्म हो गया और हम सब चांपा के प्रकाश चाल में रहने लगे। बाबु जी कभी गांव बेलादूला और कभी शिवरीनारायण में रहते थे। बच्चों के साथ वे बड़े प्रसन्न रहते थे। प्रकाश चाल, मिशन रोड में हम पांच साल रहे उसके बाद हम रेल्वे स्टेशन के सामने मुल्जी सिक्का के बिड़ी पत्ते के गोदाम जहां रहकर हम लोगों ने ‘‘मिरानी कालोनी‘‘ नाम दिया, में रहे। मैं रिफ्रेसर कोर्स में शिमला एक माह के लिए गया हुआ था। एक शाम बाबु जी बरामदे में बैठे थे तभी मिरानी जी आकर बाबु जी को दिसंबर माह के अंत तक घर खाली करने के लिए बोलने लगे। मिरानी जी का यह अप्रत्यासित व्यवहार बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। सुबह बेलादूला गांव से कुछ लोग बाबु जी से मिलने घर आये तब चर्चा में घर खाली करने की बात निकली। गांव के किसानों ने बाबु जी से कहा कि चांपा में मकान क्यों नहीं बनवा लेते साव जी ? बाबु जी ने बताया कि बिलासपुर में एक मकान ले लिया है। तब किसानों ने समझाया कि यहां भी मकान बनवा लेने में क्या हर्ज है ? बिलासपुर जाओगे तो उसे बेच देना, मकान तो पैसा देकर ही जायेगा ? गांव वाले की यह बात बाबु जी को एकदम जंच गई और मकान के लिए खोजबीन शुरू कर दिये। पता चला कि बरपाली चैंक में प्रकाश चाल के पीछे डागा कालोनी में एक मकान बिक रहा है। उन्होंने यहां आकर घर को देखा और घर उन्हें रहने के हिसाब से पसंद भी आ गया। उन्हें लग रहा था कि अगर मिरानी जी तत्काल मकान खाली करने के लिए बोलेंगे तो बच्चे कहां जायेंगे ? मेरे देखने के पहले कल्याणी को भी मकान को दिखा दिये थे। मेरे शिमला से आने के बाद उन्होंने मुझे सबसे पहले इस घर को दिखाने ले आये। उन्होंने कहा कि मकान तो तुम ले ही लो, अपने हिसाब से थोड़ा बहुत सुधरवा लेना और फिर शिफ्ट हो जाना, बाकी रहते रहते सुधरवाते रहना। मैंने मकान खरीदने के लिए हां कर दी। डागा कालोनी के इस मकान को पी.आई.एल. के एक ठेकेदार ने पंजाब नेशनल बैंक सिवनी (चांपा) से लोन लेकर बनवाया था। एक बार किसी काम से वह आंध्रप्रदेश गया और हार्ट अटेक से वहीं उनकी मृत्यु हो गयी थी। पंजाब नेशनल बैंक में घर माॅडगेज था। ब्रांच का मैंनेजर समझौता कराकर मकान बेचने का इच्छुक था। मैं चूंकि शासकीय नौकरी में था इसलिए लोन ट्रांसफर में कोई परेशानी नहीं थी। मिरानी कालोनी में साथ रह रहे श्री रमेश देवांगन जी की मध्यस्तता में मकान खरीदने का एग्रीमेंट हमने कर लिया। उसी समय मैं पार्ट फायनल से पैसा निकलवाया था। उसमें से बिर्रा रोड में एक 27 डिसमिल प्लाट भी लिया था लेकिन तत्काल मकान बनवाना संभव नहीं था। इसलिए इस घर को लेना मुझे उचित लगा। पूरी औपचारिकता करके मैंने मकान की रजिस्ट्री करवा लिया। मकान अपने कब्जे में लेकर उसमें वास्तु के हिसाब और अपने उपयोग के अनुसार मैं उसमें मरम्मत करवाया और 26 अप्रेल 2000 को गृह प्रवेश किया। मैंने बाबु जी के चेहरे पर गहरी शांति देखी। किराये के मकान में हम अब तक उपर के कमरे में ही रहते आये हैं, पहली बार अपने घर में नीचे रहने लगे थे। इसके पहले जब मिरानी कालोनी के मकान को खाली करके बड़ी मुश्किल से मिश्रा जी का मकान हमें छः माह के लिए किराये में मिल गया था। मिश्रा जी स्टेट ट्रांसपोर्ट में काम करते थे और स्टेट ट्रांसपोर्ट कोरबा के ब्रांच मैंनेजर क्षत्री जी के कहने पर उन्होंने हमें अपना मकान केवल छः माह के लिए दिया था। अब हम अपने घर में रहने लगे थे। यहां पानी के लिए बोर की सुविधा थी। अब तक हम पानी के लिए परेशान रहते थे, उससे हमें मुक्ति मिल गयी थी। धीरे धीरे इस घर में मरम्मत कार्य होता रहा। 

 

बाबु जी को मधुमेह हो गया था। वे अपनी सेहत का विशंष ख्याल रखते थे। सुबह व्ययाम करना, दैनिक कार्य से निवृत्त होकर पूजा पाठ करना फिर नास्ता करके थोड़ा आराम करना। शाम को चाय पीकर टहलने निकल जाते थे, चांपा में धीरे धीरे उनके अनेक लोगों से पहचान हो गयी थी। प्रति मंगलवार और शनिवार को शाम को पैदल डोंगाघाट जाते और हनुमान मंदिर में सुंदरकांड का पाठ करते थे। तब तक पोता प्रांजल स्कूटर में जाकर उन्हें मंदिर से ले आता था। पोती तृप्ति का जन्म जेठौनी एकादशी को हुआ था तब से नियमित बाबु जी और अम्मा एकादशी व्रत करते थे। हालांकि शिवरीनारायण में एकादशी व्रत का उद्यापन बड़ी धूमधाम से कर लिए थे फिर भी उनका एकादशी व्रत जारी रहा। एक दिन सुबह घर के छत में व्ययाम करके मुझे बुलाकर समझाने लगे- ‘‘तुम अपने सेवकलाल चाचा से अपनी तुलना कभी मत करना। उन्हें भी मैं भाई होते हुए भी बेटा जैसे रखा और उनके लिये जो कर सकता था, किया। तुम्हारे लिए भी यथा शक्ति अवश्य करूंगा। उस समय मेरे हाथ में सब कुछ था तो उसके हिसाब से किया, आज का समय अलग है। फिर भी मैं तुम्हारे इस घर के लोन चुकाने के लिए पैसा दंूगा।‘‘ यह सही है कि उस समय मेरा वेतन बहुत ज्यादा नहीं था। मेरा सारा वेतन घर और बच्चों की पढ़ाई और परवरिश में खर्च हो जाता था। बाबु जी भी इसे अच्छी तरह से जानते थे इसलिए गांव से धान बेंचकर जब भी चांपा आते थे तब सबसे पहले सभी बच्चों और रानी (कल्याणी) को पैसा अवश्य देते थे। अब उनके अच्छे दिन आ गये थे और हाथ में पैसा रहता था। गर्मी के दिनों में गांव से आकर वे साल भर का राशन खरीद देते थे जैसे बिलासपुर में सेवकलाल चाचा के लिए करते थे। हाथ में पैसा आने से वे शिवरीनारायण की हवेली का मरम्मत करवा दिये, बेलादूला के घर को भी रहने के हिसाब से मरम्मत करवा लिए थे। अपने जीते जी घर के सोने चांदी, बर्तन और घर का बंटवारा कर दिये थे। अपने हिस्से का सोना को भी सम्मिलात में रखे थे क्योंकि उस समय उनके दिन खराब चल रहा था। जब उन्हें भय था कि मेरे हाथ से खर्च न हो जाये ? इसी डर से वे उसे सम्मिलात में रख दिये थे और वक्त में मुझे मिल जाये। इसकी चाबी सेवकलाल चाचा के पास थी। उन्होंने मुझे यह भी कहा था कि तुम्हारे चाचा सोने चांदी का बंटवारा नहीं कर पायेंगे, इसे तुम्हें ही करना होगा। क्योंकि आज तक उन्होंने ऐसा कुछ किया ही नहीं है। बाबु जी की बात अक्षरशः सत्य हुई और बिटिया की शादी के समय मेरे जिद में सोने चांदी का बंटवारा हुआ। हांलाकि चाचा तो मुझे कुछ देना ही नहीं चाहते थे। वे कहते थे कि तुम्हारे बाबु जी अपना हिस्सा बेंच चुके हैं, इसमें तुम्हारा कुछ भी नहीं है। अगर तुम्हें इसमें अपना हिस्सा चाहिए तो अपने बाबु जी को बुलाओ, उनके हिसाब देने के बाद कुल मिल सकेगा। मैं उन्हें क्या कहता, वे मेरे बाबु जी हैं तो उनके भी तो कुछ हैं ? अंत में मेरी जिद और बंशीलाल चाचा की मध्यस्तता में बंटवारा किया गया। मुझे यह कहकर सोना चांदी कम दिया गया कि मेरे बाबु जी अपने हिस्से से तुम्हारे और तुम्हारी दीदी की शादी में सोना चांदी निकाल चुके हैं। मुझें अपने हिस्से में भी संतोष था क्योंकि मुझे बाबु जी की कही बात हमेशा स्मरण रहेगी-‘‘धीरज और संतोष में ही सुख है, तुम इसे हमेशा ख्याल रखना।‘‘ 

         अचानक एक दिन गांव से खबर आयी कि बाबु जी को बुखार आ रहा था। मैंने हेमलाल चाचा को खबर भेजकर उनकी जीप को मंगवाकर बेलादुला गांव गया और शाम तक अम्मा बाबु जी को चांपा ले आया। उस जीप में चाचा के साथ दादी भी आई थी। उनसे मिलकर बाबु जी बहुत खुश भी हुए थे और खाना खाकर दादी और चाचा जीप से शिवरीनारायण चले गये। घर पहुँचकर उन्होंने मुझे पैंतीस हजार रूपये दिये और कहा कि दो दिन में कुछ रूपये और आ जायेगा, तुम घर का किस्त जमा कर देना। डाॅ. दुबे के पास जाकर चेकअप कराये और दवाई ले आये थे। रात में बच्चों के साथ ताश खेलते रहे। दूसरे दिन नाई बुलवाकर बाल बनवाये और दैनिक कार्यों में संलग्न हो गये। 15 अप्रेल 2001 को उन्हें अच्छा नहीं लगा तब उन्होंने डाॅ. दुबे से टेलीफोन में बात किये और रात में परेशान होने के बजाये मिशन अस्पताल में भर्ती हो जाने के लिए कहने पर उन्हें मिशन अस्पताल में भर्ती कर दिये। यहां उनका ईलाज चल रहा था। रात में प्रांजल अस्पताल में ही रूक गया और हम सब घर आ गये। 16 अप्रेल 2001 को सुबह मैं अस्पताल जाकर उन्हें दैनिक कर्म कराया तब तक कल्याणी दलिया बनाकर ले आई और खिलाने लगी। प्रांजल घर आकर नहा धोकर पुनः अस्पताल चला गया। उन दिनों कालेज में परीक्षाएं चल रही थी। मेरे पूंछने पर उन्होंने मुझे कालेज जाने के लिए कहा, मैं कालेज चला गया। कल्याणी भी घर आ गई, प्रांजल और मां उनके पास थी। बेलादूला से कुछ किसान आये और पैसा प्रांजल को दिये, बाबु जी ने प्रांजल को पावती देने के लिए। प्रांजल किसानों को विदा करने अस्पताल के गेट तक गया। लेकिन तभी अम्मा की चीख सुनकर प्रांजल दौड़कर अंदर आया और देखा कि डाॅक्टर, नर्स बाबु जी का परीक्षण कर रहे हैं। उसी समय पी.आई.एल. से हमारे मित्र उदय सिंह बाबु जी को देखने मिशन अस्पताल आये थे। उन्हें डाॅक्टर ने बताया कि ‘‘...बाबु जी अब नहीं रहे।‘‘ अम्मा की चीख निकल गई। उदय सिंह उन्हें सम्हालने लगे और प्रांजल को घर में तथा पापा को खबर करने को बोले। प्रांजल भी बाबु जी के समान समझदार, धीर और गंभीर स्वभाव का था। उन्हें बाबु जी और अम्मा से बहुत लगाव था। उन्होंने घर आकर कल्याणी को बताया और मुझे फोन पर सूचना दिया कि ‘‘दादा जी अब नहीं रहे।‘‘ मैं तत्काल मिशन अस्पताल आया और सभी रिश्तेदारों को फोन पर सूचना दिया। अस्पताल की औपचारिकताएं पूरी किया, कालेज में प्राचार्य को जानकारी देकर छुट्टी लिया, और एम्बुलेंस से उनके पार्थिव शरीर को लेकर शिवरीनारायण गया। दूसरी गाड़ी में उदय सिंह अम्मा, कल्याणी और बच्चों को लेकर शिवरीनारायण गये। वहां मैंने पहले सूचित कर दिया था। परिवारजन वहां एकत्रित हो गये थे, मीना दीदी भी आ गई, एक एक करके सभी रिश्तेदार आ गये और विधि विधान से उनका दाह संस्कार महानदी के रेत में किया गया। उनकी पवित्र काया ईश्वर के श्रीचरणों में विलीन हो गई। 

अपने परिवार के साथ 
        आज बाबु जी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका आशीर्वाद हमें हमेशा मिलती रहेगी। उनके आशीर्वाद से मैं मां को चारों धाम की यात्रा करा सका, स्वयं भी तीनों बच्चों को पढ़ा लिखाकर, उनकी शादी किया। हम भी चारों धाम की यात्रा कर पवित्र जल को रामेश्वरम में चढ़ा सके और बारहौं ज्योर्तिलिंग के दर्शन लाभ ले सके। तृप्ति अपने परिवार के साथ नोयडा में सुखी है, प्रांजल अपने परिवार के साथ अमरीका में कार्यरत है और अंजल भी अपने परिवार के साथ मेरे पास है। समाज में हमें खूब मान सम्मान मिला। मैं छत्तीसगढ़ प्रदेश केशरवानी वैश्य सभा का अध्यक्ष था, आज राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हूँ। इसी प्रकार मेरी पत्नी कल्याणी छ. ग. प्रदेश केशरवानी वैश्य महिला सभा के कोषाध्यक्ष के साथ अखिल भारतीय केशरवानी वैश्य महिला महासभा की राष्ट्रीय महामंत्री और बाद में राष्ट्रीय अध्यक्ष रहीं और आज संरक्षक हैं। हम दोनों को राष्ट्रीय स्तर पर मान सम्मान मिलना पूर्वजों के आशीर्वाद से ही संभव है। हमारा उन्हें बारंबार प्रणाम। बाबु जी को हमारा विनम्र श्रद्धांजलि। उनका स्नेहाशीष हमारे परिवार को सदा मिलता रहे, इन्हीं कामनाओं के साथ। 





No comments:

Post a Comment