लखुर्री में बिताए बचपन

 सुनहरी यादें

लखुर्री में बिताए बचपन 

अशोक कुमार केशरवानी


लखुर्री की हवेली 
    बचपन के दिनों में दशहरा-दीपावली और ग्रीष्मकालीन लंबी छुट्टियां हुआ करती थी। जैसे ही हमें परीक्षा का टाइम टेबल मिलता था, हम दादा जी को चिट्ठी में परीक्षा समाप्ति की तारीख भेज देते थे। तब दादा जी हमें ले जाने हेतु चाचाजी को भेज देते थे। चाचाजी हमें लखुर्री ले जाते थे। उस समय गांव में ना आने जाने का साधन हुआ करता था और ना ही एप्रोच रोड और ना ही वहां बिजली की सुविधा थी। लखुर्री का हमारा घर किसी ऐतिहासिक हवेली से कम नहीं था। बड़ा सा सिंह दरवाजा जिसमें हाथी आसानी से पार हो जाता था, 38 इंच की मजबूत दिवार, छत में बड़ी बड़ी कंगूरे। चारों ओर से घर की निगरानी की जा सकती थी। ऐसा कहा जाता है कि हमारा हवेलीनुमा घर आधा गांव में बना है। भरा पूरा परिवार था क्योंकि परिवार के सभी सदस्यगण एक साथ रहते थे। परिवार के सभी भांजे भांजियां छुट्टियों में यहाँ आते थे। उस समय लगभग 30 बच्चे होतेे थे। सब एक साथ रहते, खाते पीते और खूब मस्ती करते थे। रेस टीप (छुप्पा छुप्पी), लंगडी, नदी पहाड़, पिट्ठूल, कैरम और ताश खेलते थे। बड़े बुजुर्ग हम सब बच्चों को बड़ा स्नेह किया करते थे। घर में झूला भी लगा था जिसमें सब बारी बारी से झूला झूलते थे। लड़के सुबह झूलते और लड़कियां शाम को झूला करती थी। गांव में बहुत बड़ा तालाब था-उसका रामसागर नाम था। बिल्कुल सागर जैसे फैला हुआ जिसके बारे में दादा जी बताया करते थे कि सन् 1856-57 में हमारे पूरे छत्तीसगढ़ में बहुत बड़ा आकाल पड़ा था। चारों ओर त्राति त्राति मच गयी थी, लोग खाने के लिये मोहताज होने लगे थे तब हमारे परिवार के लंबरदार की सहमति से यहां यह तालाब बतौर राहत कार्य खुदवाये थे। इसे खोदने के लिये आसपास के हजारों ग्रामीण यहां आये थे। इसीप्रकार हमारे अन्य मालगुजारी गांवों हसुवा और टाटा (सरसींवा खालसा के अंतर्गत) में भी ग्रामीणों को राहत देने के लिये तालाब खुदवाया गया था। दादा जी ने हमें बताया कि उस समय तीनों गांव में तालाब खुदवाने में 2595.00 (दो हजार पांच सौ पंचान्बे रूपये मात्र) नगद लगा था जिसे ग्रामीणें को नगद भुगतान किया था। उस समय जो ग्रामीण तालाब की खुदाई करते थे उन्हें हमारे घर से खाना दिया जाता था। यह परिवार का एक सद्कार्य था और अंग्रेज सरकार खुश होकर परिवार के मुखिया लंबरदार श्री खेदूराम साव को सन् 1899 में रायपुर के एक भव्य जलसे में प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया था। 
दादा साधराम साव और दादी बुलाकी देवी 

हम सब बच्चे जब तालाब में नहाया करते थे तब गाँव वाले परेशान हो जाया करते थे और कहा करते थे कुंआ का मेंढ़क तालाब में क्यूं आ जाते हो। वास्तव में उनका आशय होता था कि शहरों में हम एक-दो बाल्टी पानी में नहाते हैं और यहां सागर जैसे तालाब में खूब मस्ती करते हुए नहाया करते थे। जब हम तालाब में नहाने जाते थे तब दादा जी हमारे देखरेख के लिये नौकर जरूर भेज देते थे क्योंकि तालाब बहुत बड़ा और गहरा था। इस तालाब से खेतों की सिंचाई भी होती थी। यही कारण है कि हमारे खेतों में अधिक उपज होती थी। उस समय दादा जी के पास एक ट्रेक्टर थी और मिनी राईस मिल भी था।

     

चाचा ओंकार प्रसाद 
 हमारे गांव में एक अमराई है जहां बहुत सारे आम के पेड़ थे। पेड़ों में खूब आम फलता था, मीठे और रसीले। हम लोग गर्मी के दिनो में अमरैय्या का आम तोड़कर खाते थे। दादा जी ने हमें बताते थे कि हमारे अन्य मालगुजारी गांवों में भी बस्ती के बाहर इसी प्रकार अमराई है। बरछा में बाड़ी लगती थी जहां खीरा एवम् ककडी तोडकर खाते थे। बगीचे में अनेक फलदार पेड़ था जिसको तोड़कर खाने में बड़ा आनन्द आता था। इसीप्रकार ठंड के दिनों में बगीचे से सीताफल, रामफल बेर, अमरूद वगैरह तोड़कर खाते थे। गांव में बरछा भी था जहां गन्ने की खेती होती थी। हम गन्ना भी मजे से खाते थे। हमारे दादाजी ब्यारा में गन्ने पेरकर गुड़ बनाने का भी कार्य करते थे, गुड़ बनाते देखकर हमें बडा़ आनंद मिलता था। घंटों बैठकर हम बच्चे गन्ने से रस निकालते और गुड़ बनते देखते रहते थे।

       गांव में धान पकने के बाद उसकी कटाई की जाती थी जिसे खेतों से गाड़ा और ट्रेक्टर से ब्यारा में लाकर रखते थे। ब्यारा में धान का बहुत ऊंचा ढेर बन जाता था। हम सब बच्चे पैरावट से पेड़ और पेड़ से पैरावट में कूदते थे। एक बार हम लोगों ने देखा कि पैरावट से पैरा कोठा में जानवरों के खाने के लिए ले जाया जा रहा था। वहाॅ पर लगभग 50-60 किलोग्राम धान बिखरा हुआ था। हमरे पूंछने पर काम कर रहे किसानों ने बताया कि सदा दिन से इस प्रकार के धान पर हमारा अधिकार होेता है। इस बात की चर्चा जब हम लोगों ने दादाजी से की तो उन्होंने भी काम करने वाले मजदूरों की बात का समर्थन किया। लोगों ने कहा कि दादाजी यही मजदूर धान की सिंचाई करते हैं, यही पैरावट डालते और पैरावट से कोठेे मे रखते हैं । इसलिए ये लोग जानबुझकर ज्यादा धान पैरावट में छोड़ देते हैं तांकि बाद में वही धान उन्हें मिलता है। हम लोगों की बात सुनकर दादाजी खुश हो गये और कहा कि आज से ये धान बच्चों का होगा और जब तक छुट्टियां रहेगी, सभी मजदूरों को पहले मुर्रा खिलाने के बाद बचत धान बच्चों को मिलेगा। लगभग 10-15 दिनों में हम लोगों ने 9 बोरा धान इकट्ठा किया था। यह भी एक यादगार पल था। हमारे दादा जी हमारी मस्ती देखकर खूब आनंदित होते थे। उस समय संसाधनों के अभाव के बावजूद हम वहाॅ खूब आनन्द उठाते थे। लखुर्री आने वाले सारे बच्चे आज भी गांव में बिताये हुए उन दिनों को हमेशा याद करते हैं। 

अशोक कुमार मनीषा देवी 

         मुझे एक और घटना याद आ रही है। पापाजी एम. टेक. करने खड़कपुर गये थे। उस समय मैं लखुर्री में 7 वीं कक्षा में पढ़ रहा था। स्कूल के टीचर रे, बे से बात किया करते थे, तथा बच्चांेबच्चों से पान-सिगरेट मंगाया करते थे। किसी बच्चे को किसी के घर में संतोषी माता का व्रत कथा पढ़ने भेज दिया करते थे। इसकी शिकायत हम लोगों नेे दादाजी से कर दी। दादाजी स्कूल व्यवस्था समिति के अध्यक्ष थे। उन्होंने लोगों  अपनी कक्षा में जाने लगे थे।

     हम सब बच्चों का बचपन बड़ा बड़ा यादगार रहा है। लोग तो गांव से शहर की ओर जाने लगे हैं, आज हम भी शहरों में रहते हैं लेकिन गांव में बिताये बचपन की स्मृतियां आज भी हमें तरोताजा बना देती है। स्मुतियों की लौ हमें उर्जा प्रदान करता रहेगा। उस समय परिवार के बड़ां बुजुर्गों से जो स्नेह, प्यार और अपनापन मिला है उसे हम ताउम्र नहीं भुला पायेंगे।

लखुर्री की हवेली  हमारा परिवार 
बाबुजी और अम्मा जी  भाइयों के संग 

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