प्रो अश्विनी केशरवानी से राज केशरवानी की बातचीत

केसर ज्योति के संपादक राज केशरवानी द्वारा प्रो. अश्विनी केशरवानी से साक्षात्कार:- 

‘‘मैं तो अकेले चला था जानिबे मंजिल, लोग साथ आते गये और कारवां बनता गया...‘‘ 


  • आपने अपना कैरियर अध्यापन कार्य को ही क्यों चुना? क्या आपके समक्ष उन दिनों कुछ और विकल्प नहीं थे ? 
    • जब मैं एम. एस-सी. की पढ़ाई पूरी किया तब नौकरी के अनेक विकल्प मेरे सामने थे। अनेक संस्थानों से इंटरब्यू काल आये, मैंने इंटरव्यू भी दिया, मगर मुझे लगा कि संस्थानों में इंटरव्यू तो महज एक औपचारिकता है, जिसे लेना है उसका चयन तो पहले किया जा चुका है। उन्हीं दिनों कालेजों में तदर्थ नियुक्तियां हो रही थी, मैंने आवेदन किया और मेरी पहली नियुक्ति शासकीय दिग्विजय महाविद्यालय राजनांदगांव में हो गयी और मैं महाविद्यालयीन सेवा में आ गया। वैसे शुरू से ही मेरी रूचि अध्यापन में थी। स्कूल में खाली कक्षा में मैं अपने सहपाठियों को गणित और भौतिक शास्त्र का पाठ पढ़ाया करता था तब मेरे शिक्षक बहुत प्रसन्न होते थे। कदाचित् यही कारण है कि मैंने अपने जीवन का कैरियर अध्यापन को चुना। 
  • क्या आप अपनी आजीविका यानि अध्यापन कार्य से संतुष्ट हैं ? 
    •  जीवन में कोई संतुष्ट नहीं होता, व्यापारी न अपने व्यापार से और न ही नौकरी पेशा अपनी नौकरी से संतुष्ट होता है। लेकिन मुझे मेरे शिक्षकीय जीवन से पूरी तरह से संतुष्टी है। मेरे विद्यार्थी अच्छे अच्छे पदों पर आसीन हैं। मुझे मेरे विद्यार्थियों और उनके पालकों से बहुत मान सम्मान मिला है। इससे समाज में मेरी अच्छी प्रतिष्ठा बनी है। 
  • आप एक लेखक हैं। एक छोटा सा सवाल है- आप क्यों लिखते हैं ? इस लेखन कार्य को छोड़कर कुछ और भी कर सकते थे ? 
    • जी हां, मैं लेखन कार्य के अलावा कुछ और कर सकता था। लेकिन लेखन और वह भी रचनात्मक लेखन में मुझे आत्मिक खुशी मिलती है। मैं अपने परिवेश में बच्चों की हरकतों को देखा तो उसके उपर लिखा मुझे खुशी है कि मेरी रचनाओं को न केवल समाचार पत्रों ने बल्कि धर्मयुग, नवनीत हिन्दी डाइजेस्ट, अणुव्रत जैसी राष्ट्रीय पत्रिकाओं ने प्रमुखता से प्रकाशित किया। इसी प्रकार विभिन्न विधाओं पर मेरे आलेख प्रमुखता से देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे, उस पर संपादकीय टिप्पणी लिखे जाने लगे, इससे मुझे आत्मिक खुशी होती है। यही कारण है कि मैंने दूसरे कार्यो की ओर ध्यान नहीं दिया। 
  • अपने लेखन में आप किस तरह की चुनौतियों का अनुभव करते हैं ? 
    • कोई क्षेत्र चुनौतियों से खाली नहीं होता, लेखन का क्षेत्र भी नहीं। अगर लेखन के क्षेत्र में नयापन न हो तो उसे पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित नहीं करती। इसलिए मैं जब किसी मंदिर के उपर रिपोर्ताज तैयार करता हूँ तो उसका गहन अध्ययन करता हूँ फिर उसके बारे में नये एंगिल से लिखने का प्रयास करता हूँ । मुझे खुशी है कि मुझे पाठकों और संपादकों का अपार स्नेह मिला है। 
  • क्या आप अपने लेखन कार्य से संतुष्ट हैं ? इस क्षेत्र में आपकी भावी योजनाएं क्या हैं ? 
    • जी हां ! मैं अपने लेखन से संतुष्ट हूँ क्योंकि मैं रचनात्मक लेखन करता हंू। मैं चार दशक से विभिन्न विधाओं पर लेखन कर रहा हंू और मेरी रचनाएं देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। मेरी भावी योजना उसे पुस्तकाकार देने की है ताकि वह एक स्थायी धरोहर बन जाये। 
  • पुरातात्विक स्मारकों, भवनों आदि के संरक्षण के लिए किये जा रहे सरकारी प्रयासों को आप पर्याप्त मानते हैं ? यदि नहीं तो इनके व्यवस्थित संरक्षण के लिए आप क्या उपाय सुझाना चाहते हैं 
    •  पुरातात्विक स्मारकों, भवनों आदि के संरक्षण के लिए किये जा रहे सरकारी प्रयासों को पर्याप्त नहीं माना जा सकता। इसके लिए राशि का पर्याप्त आबंटन का नहीं मिलना प्रमुख कारण है। इसके लिए पर्याप्त राशि आबंटित की जानी चाहिए। 
  • केसरवानी समाज के संगठन में डंडा-झंडा उठाने वाले बहुत लोग घूम रहे हैं। आपने सामाजिक कार्यो में क्यों और कैसे प्रवेश किया ? आपके प्रेरक कौंन हैं ? क्या वे आपके कार्यो से संतुष्ट हैं और क्या आप अपने कार्यो से संतुष्ट हैं ? 
    • मैं छत्तीसगढ़ के एक छोटे किंतु सांस्कृतिक और धार्मिक नगर शिवरीनारायण का पौध हूँ। मेरे परिवार की इस प्रदेश में बहुत अच्छी पहचान है। मेरे दादा जी और पिता जी प्रारंभ से समाज के उत्थान के लिए प्रयासरत रहे। मैं बचपन से देखते आ रहा हंू कि मेरे परिवार के लोग दूसरों के हित में अपनी खुशी देखते थे। अपने सभी मालगुजारी गांव के अतिरिक्त शिवरीनारायण के सभी कुआं और तालाब मेरे परिवारजनों ने खुदवाया है। यही नहीं, यहां का स्कूल भवन, सार्वजनिक अस्पताल और समाजिक धर्मशाला के निर्माण में मेरे परिवार जनों की अहम भूमिका रही है। मेरे पिताजी स्व. देवालाल केसरवानी ने न केवल समाज के उत्थान के लिए कार्य किया बल्कि नगर के विकास के लिए हमेशा प्रयास करते रहे। यही सब मेरे प्रेरक हैं, मेरे समाज से जुड़ने का। मेरे दूसरे प्रेरक हैं समाज के पूर्व राष्टीय अध्यक्ष श्री शंकरलाल केसरवानी जिन्होंने गांव गांव जाकर सबको संगठित होने का संदेश दिया। आज समाज में जो झंडा उठाने वाले हैं वे केवल नाम के लिए ऐसा करते हैं। मेरे परिवार के लोग ब्रिटिश काल में क्षेत्रीय समाजिक संगठन बनाकर लोगों को संगठित करने का प्रयास किया है। मैं भी इसी दिशा में कार्य कर रहा हंू इसलिए मैं अपने कार्य से संतुष्ट हंू। 
  • आप 2005-2007 सत्र में छत्तीसगढ़ केसरवानी वैश्य सभा के अध्यक्ष रहे हैं। क्या आप अपने कार्यकाल के प्रमुख कार्यो की जानकारी हमारे पाठकों को देना चाहेंगे ? 
    • जी हां ! मैं 2005-2007 सत्र में छत्तीसगढ़ केसरवानी वैश्य सभा का अध्यक्ष रहा हूँ। मैं छोटे बड़े सभी समाजिक गांव में जाकर लोगों से मिला, उनकी गलत फहमियों को दूर किया और समाजिक उत्थान में सहयोग करने की उनसे अपील की। मुझे बताते हए अत्यंत प्रसन्नता हो रही है कि मैं इसमें पूरी तरह सफल रहा और ‘‘मैं तो अकेले चला था जानिबे मंजिल, लोग आते गये और कारवां बनता गया...‘‘ उक्ति चरितार्थ हो गयी। महासभा के कार्यक्रमों में हमारे प्रदेश की अधिकाधिक उपस्थिति से व्यक्ति विशेष को छत्तीसगढ़ मानने की महासभा का मिथक टूटा है साथ ही महासभा के द्वारा थोपे गये पदाधिकारियों के विरोध के बावजूद मेरी टीम समाजिक उत्थान के लिए कार्य करने में सफल रही। छत्तीसगढ़ में सर्वप्रथम हमने ग्राम और नगर सभा का गठन प्रदेश प्रतिनिधियों की उपस्थिति में कराया। उन्हें सशुल्क प्रदेश सभा से संबद्व किया और ग्राम व नगर सभा से प्रदेश प्रतिनिधि के नाम मंगाये जिसे प्रदेश कार्यकारिणी का सदस्य बनाया गया। ऐसा इसलिए जरूरी था क्यों कि एक व्यक्ति को एक पद दिया जा सके। अभी तक होता यही आया कि एक ही व्यक्ति नगर, प्रदेश और राष्टीय सभा में प्रतिनिधित्व करता था। हमने राष्टीय महासभा से मांग की कि प्रदेश में पदाधिकारी न थोपे बल्कि प्रदेश सभा की सहमति से पदाधिकारी बनाएं जिससे प्रदेश और राष्टीय महासभा में तालमेल बना रहे। महासभा सैद्वांतिक रूप से हमारी मांग को माना जरूर लेकिन दूसरे कार्यकाल में पुनः पदाधिकारी थोपे गए। हमने परिचय सम्मेलन और सामूहिक विवाह जैसे सामाजिक कार्यक्रम के लिए प्रदेश सभा से अनुमति लेना और कार्यक्रम प्रदेश प्रतिनिधियों की उपस्थिति में कराने का प्रावधान किया जो पूरी तरह से सफल रहा। हमारे कार्यकाल की प्रमुख सफलता पेंड्रा नगर सभा का एकीकरण है। हमें इसके लिए थोड़ी मसक्कत अवश्य करनी पड़ी मगर इसमें पेंड्रा नगरवासियों का सकारात्मक रूख प्रमुख रहा। मुझे खुशी है कि हमारी टीम के कार्यो को न केवल प्रदेश में बल्कि महासभा के द्वारा भी सराहना मिली है ... और हमारे कार्यकाल का सुखद समापन मनेन्द्रगढ़ में हुआ है। 
  • आपके कार्यकाल के बाद बनी छत्तीसगढ़ प्रदेश सभा की नई कार्यकारिणी के कार्यो का मूल्यांकन आप किस तरह करना चाहेंगे ? आप उनसे क्या अपेक्षाएं रखते हैं अथवा उनका दिशा-दर्शन किस तरह करना चाहेंगे ? 
    • छत्तीसगढ़ प्रदेश की नई कार्यकारिणी के कार्यों का मूल्यांकन आप जैसे बुद्वजीवी और जनता करेगी, मैं उनसे यही अपेक्षा करूंगा कि मेरे कार्यकाल में जो कुछ नवाचार समाजिक उत्थान के लिए किये गये थे उन्हें आगे बढ़ाकर पूरा करें। मेरा ऐसा मानना है कि तीन साल के कार्यकाल में कोई कार्य पूरा नहीं हो सकता। 
  • किसी भी समाजिक संगठन से समाज अनेक अपेक्षाएं रखता है। क्या संगठन उन अपेक्षाओं को पूरी कर सकता है ? 
    • समाजिक संगठन से समाज को अपेक्षा रखना लाजिमी है। लेकिन उसे पूरा करने में समाजिक लोगों का सहयोग आवश्यक है। आज समाजिक संगठन और लोगों के बीच तालमेल का पूरी तरह अभाव है। लोग कुरीतियों को छोड़ना नहीं चाहते, अपनी मनमानी करना चाहते हैं ... तो ऐसे में समाज के विकास की बात कल्पना ही तो है। 
  • छत्तीसगढ़ सभा के अध्यक्ष/संरक्षक के नाते, संभवतः आपने अनेक बार महासभा की बैठकों में अपनी सहभागिता दी होगी। क्या आपको इन बैठकों में समाज के लिए कुछ करने की ललक दिखाई दी है ? उनकी कार्यशैली पर क्या आप कोई प्रतिक्रिया देना चाहेंगे ? 
    • दरअसल लोग सम्मेलन और बैठक में अंतर नहीं कर पाते और महासभा की अधिकांश बैठक सभा सम्मेलनों के बीच होता है। इसलिए महासभा की बैठकों में अनावश्यक लोगों की भीढ़ अधिक होती है। इसीप्रकार महासभा के द्वारा ऐसे व्यक्ति को पदाधिकारी मनोनित किया जाता है जो जमीनी कार्यकत्र्ता के बजाए आर्थिक रूप से सक्षम होते हैं जिन्हें समाज के विकास की चिंता नहीं होती। वे तो अपनी बात रखने के लिए हंगामा करना ज्यादा उचित समझते हैं। इसलिए महासभा की बैठक सफल हो ही नहीं पाती और किसी मुद्दे पर निर्णय नहीं होता और अगर कुछ निर्णय लिये भी जाते हैं तो उसे अमल में नहीं लाया जाता। महासभा की नागपुर बैठक को कुछ अर्थो में सफल माना जा सकता है क्यों कि पहली बार पदाधिकारियों में कुछ निर्णय लेने की और उसे क्रियान्वित करने की ललक दिखाई दी है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि महासभा को अपनी कार्यशैली में बदलाव लाना चाहिए। 
  • आपके विचार से इतने विशाल समाज के हित में हमारी महासभा क्या कर रही है ? और उसे क्या करना चाहिए ताकि समाज का कुछ कल्याण हो सके ? 
    • दरअसल हमारी राष्ट्रीय महासभा परम्परा का पालन कर रही है। जब से महासभा का उद्भव हुआ है तब से प्रदेशों में केवल पदाधिकारी थोपने और अपने पद को बचाये रखने का काम करती रही है। इससे समाज का कुछ हित नहीं होने वाला है। हां, उसे क्या करना चाहिए इस पर अवश्य कुछ कहना चाहंूगा। सर्वप्रथम महासभा द्वारा सभी प्रदेशों में सदस्यतयता अभियान चलाकर नये सिरे से ग्राम, नगर, जिला और प्रदेश स्तर पर चुनाव सम्पन्न कराकर प्रदेश और राष्ट्रीय प्रतिनिधियों के नाम मंगाकर पदाधिकारियों को मनोनित किया जाना चाहिए। इसीप्रकार विभिन्न प्रकोष्ठों का गठन किया जाना चाहिए और तीन वर्ष के लिए कार्य योजना बनाकर उन्हें क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। कार्ययोजना के अभाव में सभी अपने अपने ढंग से कार्य करने का प्रयास कर रहे हैं। राष्ट्रीय पदाधिकारियों को जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। महासभा की वर्तमान कार्यकारिणी द्वारा महासभा की आजीवन सदस्यता अभियान चलाया गया है और शिक्षा छात्रवृत्ति देने की योजना बनायी गयी है। प्रचार प्रसार के अभाव में अभी तक ग्राम नगर और अन्य प्रदेशों से छात्र लाभान्वित नहीं हो पा रहे हैं। 
  • मैं महासभा की कार्यसमिति का सदस्य हूँ लेकिन महासभा के महामंत्री मुझ सहित अनेक सदस्यों को न तो बैठकों की सूचना देते हैं और न ही बैठकों की कार्यवाही आदि की जानकारी देते हैं, क्या यह उचित है ? क्या समाज के एक सर्वाेच्च संस्था की ऐसी कार्यशैली बदलने की कोई उम्मीद आपको दिखाई देते है ? 
    • महासभा की बैठकों में कार्यसमिति के सदस्यों को बैठक की सूचना भेजने की जानकारी दी जाती है। कभी कभी डाक की गड़बड़ी के कारण पत्र नहीं मिलता। आप अगर कार्यसमिति के सदस्य हैं तो आपको बैठकों की सूचना अवश्य भेजी जानी चाहिए। इसीप्रकार बैठकों की कार्यवाही की जानकारी भी भेजी जानी चाहिए। अगर नहीं भेजा जा रहा है तो इसे किसी भी मायने में उचित नहीं कहा जा सकता। रही बात महासभा के कार्यशैली में सुधार की बात, तो नई पीढ़ी को जब तक महासभा का दायित्व नहीं दिया जायेगा तब तक महासभा की कार्यशैली में कोई सुधार नहीं आयेगा। 
  • आपको याद होगा कि दिसंबर 2006 में इलाहाबाद में श्रद्धेय श्री मोहनलाल गुप्ता को तीसरी बार राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष बनाया गया । क्या किसी व्यक्ति को तीसरी बार उसी पद पर बैठाया जा सकता है? 
    • दिसंबर 2006 के इलाहाबाद महासम्मेलन में मैं उपस्थित था, जब आधे आधे कार्यकाल के लिए दो अध्यक्ष बनाये गये थे। उस समय केवल अध्यक्ष की घोषणा की गयी थी और परम्परानुसार कार्यक्रम के संयोजक को महामंत्री का दायित्व मिलना था सो मिला। कोषाध्यक्ष की घोषणा बाद में की गयी। महासभा के संविधान में विशेष परिस्थिति में दोबारा अध्यक्ष चुने जाने का प्रावधान है तीसरी बार का नहीं है। ऐसी स्थिति में कोषाध्यक्ष का मनोनयन पूरी तरह अवैधानिक है। 
  • आप तो अनेक बार महासभा की बैठकों में शामिल हुए हैं। आदरणीय श्री मोहनलाल जी जो संभवतः 10-12 वर्षो से लगातार कोषाध्यक्ष का दायित्व सम्हाले हुए हैं क्या कभी उन्होंने महासभा की किसी बैठक में महासभा के कोष का हिसााब दिया है ? यदि हां तो कब क्या हिसाब दिया है ? यदि नहीं तो क्या कोष को गुप्त रखने का विधान है ? 
    • आदरणीय मोहनलाल जी ने महासभा की बैठकों में महासभा के कोष का हिसाब दिया है। उन्होंने महासभा को बताया कि कितनी राशि कहां से प्राप्त हुई, किन किन मद में कितनी राशि खर्च की गयी और कितनी राशि शेष है, और कितनी राशि को फिक्स डिपाजिट किया गया है। कोष को गुप्त रखने का विधान नहीं है। नागपुर की बैठक में पूरा हिसाब प्रिंट कराकर सभी सदस्यों को भेजने को अवश्य कहा गया है। लेकिन अभी तक नहीं आया है। 
  • समाज के हित में आप और कुछ कहना चाहेंगे ? 
    • जी हां ! मैं समाज के सभी स्वजातीय बंधुओं से अपील करना चाहूंगा कि वे समाज के महत्वपूर्ण अंग हैं अतः सर्वप्रथम वे महासभा का प्राथमिक सदस्य अवश्य बनें, ग्राम अथवा नगर सभा के क्रियाकलापों में अवश्य भाग लें, तन, मन और धन देकर अपनी भूमिका निभाएं। ऐसे लोगों की संख्या अधिक हो सकती है जो समाज से वास्ता नहीं रखना चाहते और अक्सर कहते पाये जाते हैं कि समाज से मुझे क्या लेना देना ? ऐसे लोगों से मैं समाज से जुड़ने की अपील करता हूँ और समाज के पदाधिकारियों से अनुरोध करता हंू कि वे ऐसे लोगों की गलतफहमियों को दूर करें और उन्हें समाज से जोड़ने का प्रयास करें। नवीन पीढ़ी को भी समाज से जोड़े तभी समाज में नई सुबह हो सकेगा। समाज में दंडात्मक प्रक्रिया का प्रावधान भी होना चाहिए। इसके आभाव में लोग समाज की उपेक्षा करते जा रहे हैं जिसे किसी भी मायने में उचित नहीं माना जा सकता। 
प्रस्तुति, 
 राज केसरवानी

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