माखन साव : एक परिचय

माखन साव: एक परिचय


        माखन साव कौन हैं ? आज जब मैं अपने भरे-पूरे परिवार में जब भी किसी की शादी हो तो निमंत्रण कार्ड में समस्त ‘‘माखन साव परिवार’’ जरूर लिखा देखता हूँ। इसी प्रकार दुःख की घड़ी में शोक पत्र में भी समस्त "माखन साव परिवार" जरूर लिखा होता है। परिवारिक जन अपने को ‘‘माखन साव के वंशज’’ कहने में बड़ा गौरव का अनुभव करते अघाते नहीं हैं। इसी प्रश्न का उत्तर पाने के लिए मैं 1975 से 1980-81 तक ‘‘माखन साव परिवार की वंशावली’’ पहला विस्तृत वंशवृक्ष बनाया। पहले तो केवल परिवार के पुरूषों के ही नाम मैंने लिया था। जब मेरी धर्मपत्नी कल्याणी ने मुझसे कहा कि आखिर वंश किससे चलता है,  पत्नियों से ही न ? तो वंशावली में उनका नाम क्यों नहीं लिखा जाता ? इसी प्रकार किसी की केवल लड़कियां हैं तो उनकी भी गिनती किया जाना चाहिए। मुझे उनका तर्क उचित लगा और मैंने वंशावली को रिवाइज किया।

        छत्तीसगढ़ के प्रमुख मालगुजारों में शिवरीनारायण के श्री माखन साव का नाम आज भी बड़ी श्रद्धा और आदर के साथ लिया जाता है। आठ गांव क्रमशः हसुवा, टाटा, झुमका, सीतलपुर, बछौडीह, लखुर्री, मौहाडीह और कमरीद म.नं. एक के वे मालगुजार थे। शिवरीनारायण में उनका निवास था। कृषि कार्य और महाजनी उनका प्रमुख कर्म था। अनेक राजा-महाराजा, जमींदार, मालगुजार और गौंटिया लोगों से उनका पारिवारिक संबंध था। वे उदार, शांतिप्रिय और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। वे अपनी वार्षिक आमदनी का कुछ भाग दान-पुण्य और धार्मिक कार्यो में लगाते थे। बद्रीनाथ, रामेश्वरम, इलाहाबाद, बनारास, मथुरा-वृंदावन, कटनी, जगन्नाथ पुरी, शिवरीनारायण, सारंगढ़, सोंठी और तालदेवरी आदि में धर्मशाला बनवाये थे। अपने सभी मालगुजारी गांव में कंुआ और तालाब खुदवाये, तालाबों और महानदी के साव घाट में घाट बनवाया, स्कूलों के भवन आदि बनवाकर पुण्य कार्य किया। उनके परिवार में किंवदंती है कि उनके परिवार में पुत्र पैदा होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे या फिर लड़की पैदा होती थी। वंश की वृद्धि के लिए चिंतित माखन साव सब प्रकार से थक-हारकर अंत में ईश्वर की शरण में गये, संत-महात्माओं ने उन्हें बद्रीनाथ की यात्रा करने की सलाह दी। उस समय बद्रीनाथ की यात्रा बड़ा कष्टप्रद था। जाने का कोई साधन नहीं होता था, पैदल जाना पड़ता था। रास्ते में लुटेरे लूट लेते थे, जानवरों से भी बचना मुश्किल था। लेकिन माखन साव दृढ़ संकल्पित थे। अतः में तीर्थयात्रा के प्रहले अपना मृतक कर्म करने के बाद यात्रा की सफलता की ईश्वर से कामना करते हुए यात्रा पर निकल पड़े। कई वर्षो बाद वे अपनी यात्रा पूरी करके सकुशल लौट आये। सबकी खुशी का ठिकाना नहीं था। उनके सकुशल लौट आने से ईश्वर में सबकी आस्था और भक्ति बढ़ गयी। मानता है कि बद्रीनाथ की यात्रा तब तक पूरी नहीं होती जब तक रामेश्वरम की यात्रा न की जाये। अतः उन्होंने रामेश्वरम की भी यात्रा की। सुप्रसिद्ध साहित्यकार ठाकुर जगमोहन सिंह ने सन् 1885 में शबरीनारायण के आठ सज्जन व्यक्तियों के बारे में ‘‘सज्जनाष्टक’’ में लिखा है। उन्हीं में माखन साव भी एक थे।

माखन साहू राहु दारिद कहं अहै महाजन भारी।
दीन्हों घर माखन अरू रोटी बहु विधि तिनहो मुरारी।। 24
लच्छपती मुइ शरन जनन को टारत सकल कलेशा।
द्रव्यहीन कहं है कुबेर सम रहत न दुख को लेशा।। 25
दुओ धाम प्रथमहि करि निज पग कांवर आप चढ़ाई।
सेतुबंध रामेसुर को लहि गंगा जल अन्वाई।। 26
चार बीस शरदहुं के बीते रीते गोलक नैना।
लखि अंसार संसार पार कहं मूंदे दृग तजि नैना।। 27 
 
        इस दोहा से उनके बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। लखपति तो थे ही, उनके शरण में जो भी आता वह भूखा नहीं रहता था। चार में से दो धाम की सकुशल यात्रा करके 80 वर्ष की आयु में माखन साव गोलोकवासी हुए। इसीप्रकार शिवरीनारायण के उत्कृष्ट साहित्यकार पंडित शुकलालप्रसाद पाण्डेय ने ‘‘छत्तीसगढ़ गौरव’’ में माखन साव परिवार के बारे में विस्तृत रूप से लिखा है:-

घर घर में थी काम धेनुएं दुग्ध दायिनी।
बहती थी नित यहां दुग्ध-दधि की प्रवाहिनी।
घर घर सायं प्रात हुआ करता था दोहन।
होता घर प्रत्येक प्रात दधि-उदधि-विलोड़न।
घर घर दधि-दूध-लुटा चुके माखन-मिश्री खा चुके।
वह एक समय था कृषक भी माखल लाल कहा चुके।।
 
        माखन साव परिवार के पितृ पुरूष का नाम ‘जुड़ावन साव’ है। उनका पुत्र बसावन साव फिर उनका पुत्र धीरसाय हुए। मुझे रतनपुर रियासत के व्यापारिक गांव ‘‘घुटकू’’ में धीरसाय साव का उल्लेख मिला। घुटकू में धीरसाय साव का एक छोटा सा प्रतिष्ठित परिवार था। छोटा परिवार और सुखी परिवार की तर्ज में उनके तीन पुत्र क्रमशः मयाराम, मनसा राम और सरधाराम थे। रतनपुर के तत्कालीन राजा ने जब अपने को शराब के नशे में डुबाकर नाच गाने में दिन गुजारने लगे तब राज्य की व्यवस्था छिन्न भिन्न होने लगी। उनका वहसीपन यहीं नहीं थमा, उन्होंने नगर की लड़कियों को जबरदस्ती अपने हवस का शिकार बनाने लगे और जनताओं के विरोध के बावजूद उनका यह दौर चलता रहा बल्कि परिवार जनों के साथ उनके सैनिक मारपीट करने लगे तो समस्त वणिक परिवारजन निर्णय लिए कि अब हमें रतनपुर छोड़कर कहीं और चले जाना चाहिए। उस समय व्यापार केवल राजे रजवाडे, जमीदारी और मालगुजारी नगरों में ही चल पाता था। ऐसे में यह निर्णय करना कि किस राज्य में हम सुरक्षित रह सकते हैं, यह बहुत बड़ी समस्या थी। फिर भी निर्णय तो लेना ही था। कुछ वैश्य परिवार सक्ती रियासत होते हुए सारंगढ़ पहुंच गये, तो कुछ परिवार पंडरिया जमींदारी में रूके और कुछ परिवार कवर्धा रियासत के पिपरिया जा बसे। कुछ वैश्य परिवार कवर्धा से खैरागढ़ जा बसे और कुछ परिवार भटकते हुए बलौदाबाजार के पास छोटी सी ताहुतदारी गांव ‘‘लवन’’ के ‘‘आसनिन’’ में जाकर रहने लगे। वणिक परिवारों के यूं पलायन करने से रतनपुर की अर्थ व्यवस्था अवश्य बिगड़ गई लेकिन क्या किया जा सकता था। जो होना था वह हो चुका था। इस प्रकार धीरसाय साव का परिवार रतनपुर से लवन ताहुतदारी के अंतर्गत आसनिन गांव आ गया। जब उनका परिवार सम्हला तो उन्होंने कुछ खेत बाढ़ी में लेकर खेती किसानी करने लगे। उस समय नमक देकर धान भी खरीदने का प्रचलन था, सो उसे भी करके व्यापार करने लगे। इसमें उन्हें आशातीत सफलता मिली। इस कार्य में उनके पुत्रों ने भरपूर सहयोग किया।

        सन् 1925 में छपी पुस्तक ‘‘रायपुर रश्मि’’ के पृष्ट 229 में लेखक श्री गोकुल प्रसाद ने लिखा है -‘‘सबसे अधिक गांव बनियों के हाथ में हैं, जिनकी संख्या सात हजार से अधिक नहीं हैं, परन्तु धन इकट्ठा करने में  इनसे बढ़कर कोई जाति नहीं। ‘कौड़ी कौड़ी जोड़के निधन होत धनवान’ को सार्थक करने वाली यही जाति है। बनिये पांचेक सौ गांव के मालगुजार हैं। इनके पीछे ब्राह्मण आते हैं, जिनके हाथ में कोई 400 गांव हैं। जनसंख्या में वे बनिये से तिगुने हैं।’’ इन्हीं में से एक माखन साव भी थे।

        आगे चलकर कसडोल के प्रतिष्ठित शिवदत्त मिश्र परिवार से उनकी मित्रता हो गई। वास्तव में शिवदत्त मिश्र जी का परिवार न केवल कसडोल बल्कि ब्राह्मणों में अग्रगण्य मालगुजार परिवार था। कसडोल के आसपास अनेक छोटी छोटी जमींदारियां थी जिनमें सोनाखान, देवरी, भटगांव, कटगी जो बिलाईगढ़ जमींदारी का एक हिस्सा था। धीरसाय साव नाम के अनुकूल धीर गंभीर और बुद्धिमान व्यक्ति थे। ‘‘हसुवा’’ 750 एकड़ रकबे का एक छोटा सा गांव था जो कटगी-बिलाईगढ़, सोनाखान और देवरी जमींदारी के बीच में स्थित था और इसे बाद में सोनाखान जमींदार के पूर्वजों ने जगन्नाथ पुरी के मंदिर में चढ़ा दिये थे। आगे चलकर इस हसुवा गांव को धीरसाय साव के परिवार ने 1800 ईसवीं में जगन्नाथपुरी के ट्रस्ट से खरीद लिया और वहां खेती किसानी करने लगे। अधिक उपजाऊ और मेहनत से यहां फसलें अच्छी होने लगी। यही उनकी पहली 16 आना मालगुजारी गांव थी। यहां उन्होंने एक बड़ा सा धान रखने की कोठी (ढाबा) बनवाया था। सोनाखान जमींदार के लूटपात करने से डरकर धीरसाय अपने परिवार के साथ शिवरीनारायण आ गया। शिवरीनारायण तब मठ के महंत और शबरीनारायण मंदिर के पुजारी भोगहा परिवार की मालगुजारी गांव था। उस समय मंदिर के पुजारी भगीरथ भोगहा थे जिन्होंने अपने पुत्र बालाराम भोगहा के सहयोग से धीरसाय के परिवार को यहां बसाया। यहां घर बनाने में उनका पूरा सहयोग मिला। अब हसुवा गांव की खेती किसानी का काम शिवरीनारायण से किया जाने लगा।

        सोनाखान जमींदार शुरू से आसपास के जमींदारों और ब्रिटिश सरकार को परेशान किया करते थे। वहां का जमींदार उग्र स्वभाव के तो थे ही, उनका कहा नहीं मानने पर जबरदस्ती भी करते थे जिससे सभी परेशान रहते थे। ब्रिटिश अधिकारी मि. एगेन्यु के प्रशासन काल में सोनाखान के जमींदार रामाराय ने 1819 ईसवीं में विद्रोह किया था। सन् 1818 ई. में मराठा शासन की समाप्ति के बाद सोनाखान जमींदारी ब्रिटिश शासन के नियंत्रण में आ गयी थी। रामाराय ब्रिटिश नियंत्रण से बौखला गया और क्रुद्ध होकर खालसा के 300 गांवों पर कब्जा कर लिया था। तब ब्रिटिश अधिकारी जेनकिन्स ने कम्पनी को सूचित किया-‘‘सोनाखान का जमींदार परिवार ब्रिटिश प्रभूता को पसंद नहीं करता। रामाराय के पिता और स्वयं रामाराय छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश प्रशासन के लिए खतरा बना हुआ है।’’ उस समय ब्रिटिश प्रशासन ने सैन्य टुकड़ी भेजकर सोनाखान के विद्रोह का दमन किया था। बाद में संधि के बाद रामाराय को पुनः सोनाखान की जमींदारी सौंपी गई। सन् 1821 में सोनाखान जमींदार रामाराय की मृत्यु हो गई। उसके बाद उनके पुत्र नारायण सिंह ने सोनाखान की जमींदारी सम्हाली। (छत्तीसगढ़ के इतिहास से)

        आगे चलकर हसुवा में भी एक हवेली का निर्माण कराया जो 16634 वर्ग फुट क्षेत्रफल में बना हुआ है। इस प्रकार उनका परिवार आसनिन से हसुवा होते शिवरीनारायण आ गया। हसुवा के हवेली का ज्यादातर हिस्से में धान रखने की कोठी थी। परिवार तो बहुत छोटा था। सबसे बड़े पुत्र मयाराम साव के चार पुत्र क्रमशः माखन, गोपाल, गोविंद और गजाधर हुए। हसुवा के कृषि कार्य पहले मयाराम साव शिवरीनारायण से आकर किया करते थे, आगे चलकर उनके द्वितीय पुत्र गोपाल साव यहां के कृषि कार्य की देखरेख करते रहे। शिवरीनारायण में रहकार मयाराम साव महाजनी का काम शुरू किये। मालगुजार, गौंटिया, जमींदार और राजा लोग उनसे पैसा उधार लेने लगे। तत्कालीन दस्तावेज में कटगी-बिलाईगढ़, भटगांव, सोनाखान, चांपा, सारंगढ़, सक्ती और रायगढ़ के अलावा मध्य भारत, बरार के राजा और जमींदार के पैसा लेने का उल्लेख मिलता है।

        परिवार में ज्येष्ठ पुत्र माखन साव का जन्म 1812 ईसवीं में शिवरीनारायण में हुआ। घर में बड़े बुजुर्गों का स्नेह, धामिक वातावरण और महानदी का संस्कार उन्हें मिला। उनके जन्म के साथ ही परिवार में खुशी का वातावरण था। समय गुजरता गया और मयाराम साव के तीन पुत्र क्रमशः गोपाल, गोविंद और गजाधर हुए। इसी प्रकार मनसाराम के पुत्र रतनलाल और सरधाराम के शोभाराम और ढुढवाराम हुए। धीरसाय साव की बुढ़ी आंखें बच्चों की किलकारी से अति प्रसन्न थी। उन्होंने पुत्रों से महानदी के तट पर शिव मंदिर की स्थापना का सुझाव दिया जिसे सबने स्वीकार किया। मुझे तत्कालीन दस्तावेज में एक आवेदन पत्र भोगहा जी मालगुजार और ब्रिटिश अधिकारी के नाम महानदी के तट पर एक शिव मंदिर और पचरी निर्माण कराने की अनुमति देने का अनुरोध किया गया था, मिला। अनुमति मिलने के बाद ही नदी खंड में एक शिव मंदिर का निर्माण मयाराम साव द्वारा कराया गया। वहां नित्य पूजा अर्चना होने से परिवार में सुख शांति के साथ वैभव की प्राप्ति होने लगी। संभव है शिव लिंग की स्थापना और पूजा अर्चना के साथ ही परिवार में उपर्युक्त बच्चों का जन्म हुआ हो ? क्योंकि इस परिवार में बच्चे जन्म लेकर काल कवलित हो जाते थे। इससे वंश की रक्षा का खतरा उत्पन्न हो गया था।

        तत्कालीन दस्तावेज के पन्नों में माखन साव द्वारा अपने दूसरे मालगुजारी गांव कमरीद महाल नंबर एक और उससे लगे ठाकुरों की बस्ती कोड़ाभाट से व्यापार करने का उल्लेख मिला। इससे पता चलता है कि कमरीद गांव का एक भाग मयाराम साव के द्वारा क्रय किया गया था। व्यापार में आशातीत सफलता मिलने से माखन साव प्रसन्न हुये और महाजनी का भी विस्तार करने लगे। उनकी व्यवहार कुशलता, धीर गंभीर और धार्मिकता से न केवल परिवारजन बल्कि उनके संपर्क में आने वाले लोग भी प्रभावित होने लगे। परिवार में ज्येष्ठ पुत्र होने से सभी उनका सम्मान करते और उनसे सलाह मशविरा करते थे। हसुवा का कृषि कार्य गोपाल साव को सौंपा गया और स्वयं माखन साव कमरीद और शिवरीनारायण का कार्य देखने लगे। माखन साव के दोनों चाचा मनसाराम भटगांव में और सरधाराम नवागढ़ में व्यापार करने लगे। पूरा परिवार शिवरीनारायण में रहता और पुरूष लोग व्यापार के लिये जाते थे। शिवरीनारायण से सोनाखान के जमींदार रामाराय और बाद में उनके पुत्र नारायण सिंह पैसा उधार लिया करते थे और मय ब्याज के लौटा दिया करते थे। इसके पहले कसडोल के मिश्रा परिवार से भी उनके द्वारा पैसा उधार लिये जाते रहे हैं बाद में नाराज होकर शिवरीनारायण से पैसा उधार लेने लगे थे। नारायण सिंह के उग्र स्वभाव से सभी परिचित थे। बहुत जल्द वे क्रोध में आ जाते थे और नैतिकता तथा व्यवहार को ताक में रखकर गाली गलौच और जबरदस्ती में आ जाते थे। उसी समय सोनाखान के जंगल में एक खूंख्वार शेर का आतंक होने लगा। उसके आतंक से ग्रामवासी त्राहि त्राहि करने लगे और उनसे सुरक्षा की गुहार करने लगे। एक बार नारायण सिंह के सामने वही शेर आ गया। दोनों के बीच लड़ाई हुई और अंततः शेर मारा गया। क्षेत्र के लोगों को शेर के आतंक से मुक्ति मिली और चारों ओर अमन चैन व्याप्त हो गया। चारों ओर नारायण सिंह की वीरता की चर्चा होने लगी और इसी वीरता के कारण स्थानीय कवि उन्हें ‘‘वीर’’ नारायण सिंह संबोधित करने लगे। इतिहासकार डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र ने छत्तीसगढ़ के इतिहास में लिखा है कि वीर नारायण सिंह का प्रभाव प्रजा ही नहीं बल्कि आस पास के जमींदार भी मानते थे। उन्होंने आगे लिखा है कि महानदी घाटी की जमींदारियां जैसे कटगी, बिलाईगढ़, भटगांव, फिंगेश्वर, फूलझर, नर्रा, कोमाखान (सूअरमाल) सभी उनका प्रभाव मानते थे और उनके उग्र स्वभाव से त्रस्त भी थे।

        छत्तीसगढ़ में सन् 1856-57 में भीषण आकाल पड़ा। इस आकाल से समूचा छत्तीसगढ़ के साथ सोनाखान क्षेत्र भी प्रभावित हुआ। लोग त्राहि त्राहि करने लगे। नारायण सिंह का खजाना तो खाली ही था। वे स्वयं महाजनों से उधारी लेकर जमींदारी का काम जैसे तैसे चला रहे थे। आकाल से प्रभावित होकर उन्होंने कसडोल के मिश्रा परिवार और शिवरीनारायण के माखन साव से अनाज देने की मांग की। दोनों के पास नारायण सिंह का बहुत सारा कर्ज था। महाजनों के द्वारा पहले उधारी के पैसे लौटाने की बात कही गई जिससे नाराज होकर नारायण सिंह क्रोधित हो उठे और महाजनों से गाली गलौच करने लगे। फिर एक दिन माखन साव के हसुवा स्थित ढाबा (धान की कोठी) को फोड़वाकर धान लूट लिया। प्रो. रमेन्द्रनाथ मिश्रा ने लिखा है कि ‘आकाल से पीड़ित किसानों के लिये जमाखोर महाजन माखन से अनाज देने को कहा लेकिन माखन के अनाज देने से आनाकानी करने से नारायण सिंह क्रोध में आकर अनाज के गोदाम को खुलवाकर जरूरतमंद किसानों के लिये उतना ही अनाज निकलवाया जितनी आवश्यकता थी।’ एक इतिहासकार के द्वारा माखन के बारे में बिना जाने समझे जमाखोर लिखना और क्रोधित जमींदार द्वारा अनाज के गोदाम को जबरदस्ती फोड़वाकर केवल उतना ही अनाज निकलवाना जितनी जरूरत थी, कहना उचित नहीं है। क्रोधित व्यक्ति पहले तोड़ फोड़ और नुकासान ज्यादा करता है। तब वह किसी प्रकार संतुलित नहीं होता, यह मनुष्य का स्वभाव है। शोधकार्य तो वास्तव में दोनों पक्षों के बारे में जानकर लिखी जानी चाहिये न कि एक पक्ष कोे। वास्तव में इस प्रकार के कार्य शोधकार्य नहीं बल्कि चाटुकारिता कहलाती है। वास्तव में माखन कौन थे, उसे अंधकार में रखकर  प्राध्यापकों ने शोध कार्य किया है जो किसी भी मायने में उचित नहीं है। उसके बाद माखन साव ने ब्रिटिश सरकार को इस घटना की रिपोर्ट भेजी और न्याय की गुहार की। ब्रिटिश शासन द्वारा नारायण सिंह के उपर लूट और हिंसा का चार्ज लगाकर गिरफ्तारी वारंट जारी किया और गिरफ्तार कर उसे जेल में डाल दिया गया साथ ही नारायण सिंह के गांव की बिक्री कर 1377.50 (तेरह सौ सतहत्तर रूपये पचास पैसा) मुवावजा दिया गया। राशि के हिसाब से ढाबा से 1400 बोरा धान निकाला गया था। उस समय माखन साव के भाई गोपाल साव हसुवा के कृषि कार्यों की जिम्मेदारी सम्हाल रहे थे जिसे नारायण सिंह ने भगा दिया था। उसके आतंक से भयभीत होकर गोपाल साव रातों रात भागकर शिवरीनारायण आ गये थे।

        इतिहासकार डॉ. रामकुमार बेहार ने छत्तीसगढ़ का इतिहास पुस्तक में लिखा है-‘‘सन् 1835 में 35 वर्ष की अवस्था में नारायण सिंह ने खरौद के पं. देवनाथ मिश्रा की हत्या कर दी थी।’’ वास्तव में पं. देवनाथ मिश्रा कसडोल निवासी और खरौद तथा कोटगढ़ के गढ़ाधिपति थे। डॉ. बेहार ने आगे लिखा है कि सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह ने सन् 1856 ई. में अकाल पीड़ितों को बांटने के लिए माखन बनिया के गोदाम को लूट लिया। सारंगढ़ नरेश संग्रामसिंह द्वारा संकलित कराये गये चरित्र किताब में लिखा है-‘‘सोहरी नारायण (सौरिनारायण) के माखन साव के ढाबा के धान को जबरदस्ती फोरि के बाढ़ी दिये वो साव के भाई को निकाल दिये तो माखन साव सारंगढ़ आये और साहब के पास नालिस किये तो साहेब ने सोनाखान के देवान नारायण सिंह को पकड़ के रायपुर ले जाके जेल में डाल दिये। माघ महिना, संवत् 1914 के साल।’’ इससे पता चलता है कि डॉ. रमेन्द्रनाथ मिश्र ने किस प्रकार से शोधकर तथ्यों को पेश किया है। यह भी सत्य है कि नारायण सिंह के आतंक से भयभीत होकर माखन साव  शिवरीनारायण छोड़कर सारंगढ़ में रहने के लिये खाड़ाबंध तालाब पार में घर बनवा लिया था। लेकिन 1857 में नारायण सिंह को ब्रिटिश सरकार द्वारा रायपुर में फांसी दे दिये जाने के बाद माखन साव सारंगढ़ जाने का विचार त्याग दिये और शिवरीनारायण में ही रहने लगे। सारंगढ़ के खाड़ाबंध तालाब के पार में स्थित भवन को पहले सार्वजनिक धर्मशाला के रूप में रखा गया और बाद में केशरवानी भवन के लिए समाज को दान कर दिया गया है।

        माखन साव ने अब तक आठ गांव क्रमशः हसुवा, कमरीद महाल नंबर एक, लखुर्री, मौहाडीह, टाटा, झुमका, शीतलपुर और बछौडीह खरीदकर परिवार के समृद्धि में चांद चांद लगाया। अब परिवार में माखन साव को ज्येष्ठ होने के नाते उन्हें मालगुजार और लंबरदार की मान्यता दी गई। अब उन्होंने नदी खढ़ स्थित शिव जी को ‘‘महेश्वरनाथ महादेव’’ का नाम देकर सावन में माह भर श्रावणी और महाशिवरात्री को विशेष पूजा अर्चना और अभिष्ेाक करने लगे। इससे परिवार की श्री वृद्धि होने लगी। मंदिर परिसर में कुलदेवी शीतला माता की स्थापना की गई जो आगे चलकर ग्राम देवी मान्य की गई। आज भी विवाह के अवसर पर देवालय यात्रा कर देवी पूजन के लिए लोग यहां आते हैं। एक अन्य तथ्य में माखन साव के चाचा मनसाराम, सरधाराम और भाई रतनलाल तथा शोभाराम क्रमशः भटगांव और नवागढ़ में रहने की जिद करने लगे और चले भी गये थे लेकिन कुछ समय पश्चात् दोनों चाचा की तबियत बिगड़ गई। सरधा राम चाचा की आंख में दिखाई देना बंद हो गया और मनसा राम चाचा का पैर टूट गया और शोभाराम की मृत्यु हो गई। इसे परिवार में आई विपत्ती मानकर माखन साव उन्हें शिवरीनारायण आकर अपने व्यापार में सहयोग करने के लिए मना लिया और सब एक साथ रहकर कार्य करने लगे।

        तत्कालीन दस्तावेज में 1882 में लखुर्री और मौहाडीह सोलह आना गांव सरवानी के मालगुजार के द्वारा उधारी के वसुली के लिये डिग्री होने पर वहां के मालगुजारीन द्वारा दोनों गांव माखन साव को देने का उल्लेख है। इससे उनकी परिवार को एक जूट रखने की भावना का पता चलता है। कवि पंडित शुकलाल पांडेय भी लिखते हैं:-

एक डाल के पुष्प तुल्य सबका था जीवन।
भिन्न भिन्न थे गेह किंतु थे एक गये बन।
सब में पारस्परिक प्रेम का था आकर्षण।
होता था अविराम प्रेम-पीयुष-प्रकर्षण।
सब सब का मन आकृष्ट कर रहते प्रेम विभोर थे।
अतएव कृषक -कृषिकार थे मन-माखन के चोर।। 196।।

       अब माखन साव का धर्म और कर्म में विश्वास बढ़ गया। वे साधु संतों की सेवाश्रुषा, सत्संग आदि करने लगे। एक बार मुझे अपने इलाहाबाद और बनारस प्रवास में एक बुजुर्ग पंडे ने बताया कि एक बार छत्तीसगढ़ प्रान्त से माखन साव बानी यहां आये थे। कहते हैं कि उनके पास अपार धन दौलत है और धार्मिक कार्यो में उनकी गहरी रूचि है। साधु संतों के साथ संत्संग करना, दान पुण्य करना और साधु संतों की सेवा करना, उन्होंने अपना धर्म मान लिया है। वे वास्तव में एक सज्जन पुरूष थे। यहां उन्हें कौन नहीं जानता ? मेरे बताने पर कि में उनका वंशज हूँ तो वे बहुत प्रसन्न हुए और ढेर सारा आशीर्वाद दिये। माखन साव की धार्मिकता का एक उदाहरण रतनपुर के खीच्रकेदार महादेव के उद्भव से जुड़ी हुई है। डां. भालचंद राव तैलंग ने ‘‘छत्तीसगढ़ी, हल्बी, भतरी बोलियों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन’’ के अर्थतत्व पृ. 200 में उल्लेखित है। विशेष घटना के कारण ‘‘खिच्रकेदार’’ को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा है:- ’’रतनपुर का मंदिर जहां पहले माखन साव ने एक साधु को खिचड़ी परोसी थी और जहां पक़ी हुई खिचड़ी से भरी पत्तल को फोड़कर शिवजी प्रकट हुए थे। इस उद्धरण को रामलाल वर्मा द्वारा लिखित रायरतनपुर महात्म्य (पृ. 22) से लिया गया है।’’ तभी तो कवि शुकलाल पांडेय लिखते हैं:-

तुम्हें देख पातकी मनुज बनते धर्मात्मा।
हो जाते व्यवहार देखकर दुष्ट महात्मा।
बन जाते आलसी कर्मरत, निठुर दयायुत।
लोभी परम उदार धरणि भी शोभा-संयुत।
तुम सबका कायाकल्प कर देते हो अविराम ही।
किससे सीखी है युक्ति यह ? बतला दो हमको सही।। 227।।

        कइयों के वंश खत्म हो गये और कुछ राजनीति, व्यापार आदि में संलग्न होकर अपनी वंश परम्परा को बनाये हुए हैं। वंश परम्परा को जीवित रखने के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता ? राजा हो या रंक, सभी वंश वृद्धि के लिए मनौती मानने, तीर्थयात्रा और पूजा- यज्ञादि करने का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में मिलता हैं। देव संयोग से उनकी मनौतियां पूरी होती रही और देवी-देवताओं के मंदिर इन्ही मनौतियों की पूर्णता पर बनाये जाते रहे हैं, जो कालान्तर में उनके ‘‘कुलदेव’’ के रूप में पूजित होते हैं। छत्तीसगढ़ में औघड़दानी महादेव को वंशधर के रूप में पूजा जाता है। खरौद के लक्ष्मणेश्वर महादेव को वंशधर के रूप में पूजा जाता हैं यहां लखेसर चढ़ाया जाता है। हसदो नदी के तट पर प्रतिष्ठित कालेश्वरनाथ महादेव वंशवृद्धि के लिए सुविख्यात् हैं। खरियार के राजा वीर विक्रम सिंहदेव ने कालेश्वर महादेव की पूजा अर्चना कर वंश वृद्धि का लाभ प्राप्त किया था। खरियार के युवराज डॉ. जे. पी. सिंहदेव ने मुझे सूचित किया कि-‘‘मेरे दादा स्व. राजा वीर विक्रम सिंहदेव वास्तव में वंश वृद्धि के लिए पीथमपुर जाकर कालेश्वर महादेव की पूजा और मनौती किये थे। अनके आशीर्वाद से दो पुत्र क्रमशः आरतातनदेव, विजयभैरवदेव और दो पुत्री कनक मंजरी देवी और शोभज्ञा मंजरी देवी हुई और हमारा वंश बढ़ गया। इसी प्रकार माखन साव के वंश को महेश्वर महादेव ने बढ़ाया। इन्ही के पुण्य प्रताप से बिलाईगढ़-कटगी के जमींदार की वंशबेल बढ़ी और जमींदार श्री प्रानसिंह बहादुर ने नवापारा गांव माघ सुदी 01 संवत् 1894 में महेश्वर महादेव के भोग-रागादि के लिए चढ़ाकर पुण्य कार्य किया। माखन साव और उनके वंशज लंबरदार खेदूराम साव और आत्माराम साव के द्वारा नवापारा गांव से प्रतिवर्ष होने वाली आमदनी से महेश्वरनाथ महादेव के भोगराग और पूजा अर्चना में लगाया जाता रहा है। आगे चलकर बिलाईगढ़-कटगी के जमींदारों के द्वारा दान में दिये गये नवापारा गांव को वापस लौटाने के लिये तत्कालीन जमींदारों ने न केवल मांग की, धमकाया बल्कि नालिस भी किया। बाद में केश कोर्ट के द्वारा खारीज कर दिया गया।

        उनके पौत्र श्री आत्माराम साव ने मंदिर परिसर में एक संस्कृत पाठशाला का निर्माण कराया और संस्कृत पढ़ाने के लिए बनारस से पंडित बुलवाये थे। इस पाठशाला में हमारे परिवार बच्चे संस्कृत की शिक्षा ग्रहण किये थे। सुन्दर घाट और बाढ़ से भूमि का कटाव रोकने के लिए मजबूत दीवार का निर्माण कराया। इस घाट में अस्थि विसर्जन के लिए एक कुंड बना है। इस घाट में अन्यान्य मूर्तियां जिसमें शिवलिंग और हनुमान जी प्रमुख हैं, के अलावा सती चौरा बने हुए हैं। सावन में श्रावणी और महाशिवरात्रि में यहां विशेष पूजा अर्चना की जाती थी। महेश्वरनाथ की महिमा अपरम्पार है। शिवरीनारायण के अलावा हसुवा, टाटा और लखुर्री में महेश्वर महादेव का और झुमका में बजरंगबली का भव्य मंदिर है। हसुवा के महेश्वर महादेव के मंदिर को माखन साव का भतीजा और गोपाल साव के पुत्र बैजनाथ साव, लखुर्री के महेश्वरनाथ मंदिर को परघिया साव ने बनवाया। इसी प्रकार टाटा के घर में अंडोल साव ने शिवलिंग स्थापित करायी थी। माखन वंश द्वारा निर्मित सभी मंदिरों के भोगराग की व्यवस्था के लिए कृषि भूमि निकाली गयी थी। इससे प्राप्त अनाज से मंदिरों में भोगराग की व्यवस्था होती थी। मंदिर के भोगराग और व्यवस्था के लिए निकाले गये खेत वास्तव में लंबरदार के नाम पर था जिसकी उपज से मंदिर में भोगराग और मंदिर की देखरेख होती थी और बुजुर्गों के मृत हो जाने से इन तथ्यों से अनजान बंटवारा में उनके वंशजों ने आपस में बांट लिया। आज भी ये सभी मंदिर बहुत अच्छी स्थिति में है और उनके वंशजों के द्वारा सावन मास में श्रावणी पूजा और महाशिवरात्रि में अभिषेक किया जाता है।

       अंत में माखन साव 80 साल की उम्र में फाल्गुन सुदि 2, संवत् 1949 अर्थात् शनिवार, दिनांक 06 मार्च सन् 1892 को बिलखता छोड़कर स्वर्ग सिधार गये। उनके मृत्युपरांत भी राजा, महाराजा और ब्रिटिश सरकार के पत्र, आमंत्रण आदि माखन साव के नाम से आते रहे।

हो तुम प्रियवर ! भक्ति-माल्य पहनाने लायक।
हो तुम आदर-रूप-वारि नहलाने लायक।
हो संशुद्धि सहानुभूति के पाने लायक।
हो तुम प्रतिदिन बार बार बलि जाने लायक।
तुमही ऋषियों के तुल्य इस जग में चरित मनोज हो।
तुमही प्रणाम के योग्य हो और प्रदक्षिण योग्य हो।। 225।।

        माखन साव के सद्कार्यों को उनके पुत्र, पौत्र और परिवारजनों ने भी अपनाया। मुझे तत्कालीन दस्तावेज से ज्ञात हुआ कि बिलासपुर जिलान्तर्गत तीन तहसील क्रमशः बिलासपुर, मुंगेली और शिवरीनारायण सन् 1861 में बनाया गया था। उस समय नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों और मालगुजारों को आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट बनाया जाता था। मुझे माखन साव को भी आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट होने, ब्रिट्रिश सरकार के दरबारी और बंदूक रखने का अधिकार दिया गया था। शिवरीनारायण में उनके द्वारा दिये गये फैसलों के स्टाम्प पेपर मुझे मेरे घर के बस्तों में मिला। मेरी उत्सुकता उन्हें और जानने, समझने की बढ़ी। खोज करने पर मुझे ज्ञात हुआ कि माखन साव के साथ शिवरीनारायण मंदिर के पुजारी पंडित यदुनाथ भोगहा और मठ के महंत अर्जुनदास भी आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट थे। आगे चलकर महंत अर्जुनदास के बाद महंत गौतमदास आनरेरी बेंच मजिस्टेªट बनाये गये। इसी प्रकार माखन साव के बाद उनके पुत्र खेदूराम साव को भी शिवरीनारायण तहसील के आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट बनाये गये थे। सन् 1885 और 1890 में शिवरीनारायण के महानदी में आयी बाढ़ में तहसील के कागजात बह गये, गांव में खूब तबाही हुई तब ब्रिटिश सरकार द्वारा तहसील मुख्यालय शिवरीनारायण से हटाकर जांजगीर को बनाया गया। तब भी आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट बनाये जाने की परम्परा थी। मुझे मेरे घर में माखनसाव के पौत्र और खेदूराम साव के पुत्र श्री आत्माराम को सन् 1920 में जांजगीर तहसील के शिवरीनारायण का आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट बनाये जाने का पत्र मिला जिसे तहसीलदार द्वारा जारी किया गया था। बाद में मैंने पुनः खोज की तो पता चला कि मालगुजार नही होने के बाद भी शिवरीनारायण के अनेक प्रतिष्ठित व्यक्तियों को आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया था उनमें श्री लोकनाथ साव (धांगड़ साव), सेठ जानकीदास सुल्तानिया और सेठ बैजनाथ खंडेलिया का नाम प्रमुख है। ये सब जानकर मुझे अतीव प्रसन्नता हुई कि मैं शिवरीनारायण के माखन साव परिवार का बहुत छोटा पौध हूँ और परिवार की उपलब्धियों को समेटने का सद्कार्य मुझे करने का अवसर मिला है। कहते हैं कि अगर सच्ची लगन हो तो ईश्वर भी उनका साथ देता है। इतने सारे दस्तावेज, मालगुजारी गांवों के बस्ते, डिग्री के फैसले के स्टाम्प पेपर, अनेक अवसरों और राजा महाराजाओं के विभिन्न आयोजनों के आमंत्रण पत्र, पुरस्कार आदि की जानकारी केवल मुझे ही मिली। पहले हमारे घर में ये सब तीन अलमारियों में भरी थी जिसे मेरे पिताजी देखते रहे। मेरी रूचि को देखकर सभी दस्तावेज को सहेजकर पारिवारिक बंटवारा के बाद मुझे सौंप दिये। यही नहीं बल्कि बहुत सारी पारिवारिक जानकारी भी मुझे दिये जिससे मेरी अभिरूचि बढ़़ी और मैंने ‘‘माखन वंश’’ स्मारिका के प्रकाशन की योजना बनाई, परिवार का वृहद वंशावली बनाया। मुझे लगता है कि ये सब मेरे पूर्व जन्मों के सत्कर्माें और भगवान शबरीनारायण और मेरे पूर्वजों का आशर्वाद का ही प्रतिफल है, तभी यह संभव हो सका। उन्हीं की कृपा से मैं शिवरीनारायण के देवालय और परम्परा, शबरीनारायण भगवान का माहात्म्य और सुप्रसिद्ध कवि, उपन्यासकार, साहित्यकार और शिवरीनारायण तहसील के तहसीलदार ठाकुर जगमोहनसिंह, उनके शिष्य और साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा के सद्कार्यों और रचनाओं के बारे में लिख सका। साथ  ही भारतेन्दु काल के अन्यान्य साहित्यकारों जो आज तक गुमनाम थे, के व्यक्तित्व और कृतिव को ‘छत्तीसगढ़ के साहित्य साधक के रूप में समेट सकने में समर्थ हुआ हूँ । निश्चित रूप से मैं उनके प्रति कृतज्ञ हूँ ।
 

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